Gita Updesh- मैं ही जल का स्वाद एवं सूर्य और चंद्रमा का प्रकाश हूं, मैं सभी वेदों में पाया जाने वाला अक्षर, ‘ॐ’ हूं, मैं नभ (आकाश) में ध्वनि हूं, और मैं ही पुरुष में पुरुषत्व हूं | पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और मिथ्या अहंकार- यह आठ विभिन्न तत्व मेरी भौतिक प्रकृति में समावेशित हैं|
जय श्री कृष्ण, मैं हूं विशाल यादव, आपका दोस्त, और मैं गीता उपदेश के अध्याय 7 के श्लोको का सार तत्व यहां पर लिख रहा हूं, और आशा करता हूं की यह गीता ज्ञान जो प्रभु श्री कृष्ण द्वारा कही गई है, आपको जीवन में नई ऊंचाइयां और सफलताओं को पाने में मार्गदर्शन करेगी| जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण| Gita Updesh by Shri Krishna ज्ञान-विज्ञान योग
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ज्ञान-विज्ञान योग
भगवान श्री कृष्ण के वचन-
भगवान श्री कृष्ण ने कहा- हे पार्थ, यह सुनो की कैसे मन को मुझ पर आसक्त किए योग का अभ्यास करने से, और पूर्ण रूप से मेरा आश्रय लेने से, निश्चित रूप से मुझे जान पाओगे| मैं तुम्हें ज्ञान और उसकी प्राप्ति (अनुभूति) को समझाता हूं| एक बार जो तुम इसे समझ लो, तो इस संसार में जानने के लिए कुछ और शेष नहीं रहेगा|
हजारों व्यक्तियों में से कोई एक सिद्धि प्राप्त करने की कोशिश करते हैं| उन दुर्लभ व्यक्तियों में, जो सिद्धि के लिए प्रयास करते हैं, उनमें से कोई एक ही मुझे वास्तव में जान पाता है|
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और मिथ्या अहंकार- यह आठ विभिन्न तत्व मेरी भौतिक प्रकृति में समावेशित हैं|
तथापि, हे महाबाहु, यह जानो की इस निम्न प्रकृति से परे मेरी दिव्य प्रकृति है| वह चेतन शक्ति है जो जीवात्माओं से युक्त है और संपूर्ण जगत का निर्वाह करती है| यह समझने की कोशिश करो कि सभी प्राणी इन दो स्रोतों से प्रकट होते हैं और मैं ही संपूर्ण सृष्टि के सृजन और विनाश का कारण हूं|
धनंजय, कुछ भी मुझसे श्रेष्ठ नहीं है| जिस प्रकार मोती धागे में गुथे रहते हैं, इस प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है|
हे कुंती पुत्र, मैं ही जल का स्वाद एवं सूर्य और चंद्रमा का प्रकाश हूं, मैं सभी वेदों में पाया जाने वाला अक्षर, ‘ॐ’ हूं, मैं नभ (आकाश) में ध्वनि हूं, और मैं ही पुरुष में पुरुषत्व हूं |
मैं पृथ्वी की मौलिक महक हूं, मैं अग्नि का तेजस हूं| मैं ही सभी प्राणियों का जीवन एवं तपस्वियों का तक हूं| यह जानो की मैं ही सभी जीवो का मूल कारण हूं| मैं ही बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेजस हूं|
मैं बलवानो की महत्वाकांक्षा वह लगाव से रहित बल हूं| हे भारत श्रेष्ठ! मैं ऐसी प्रजनन की कामना हूं, जो धर्म के विरुद्ध ना हो|
यह भी जानो की सभी चीज जो सत्वगुण, रजोगुण या तमोगुण से उत्पन्न होते हैं, मैं ही उनके उद्गम हूं| हालांकि मैं उनमें नहीं हूं, लेकिन वह मुझ में निहित है| सारा संसार प्रकृति के इन तीन गुणों (सात्विक, राजसिक एवं तामसिक) से मोहित हैं| इसलिए, कोई भी मुझे जान नहीं सकता क्योंकि मैं प्रकृति के इन गुणों से परे एवं अपरवर्ती हूं|
मेरी दैवी शक्ति, जिसके अंतर्गत त्रिगुणात्मक भौतिक प्रकृति है, इसे परास्त करना अत्यंत ही कठिन है| किंतु जो लोग मेरी शरण में आते हैं, वह इस पर कर सकते हैं|
मूर्ख, सबसे नीच, जिनके ज्ञान भ्रम से आच्छादित है, और जो लोग अधार्मिक कार्यों में लगे रहते हैं- इन तरह के अधर्मी व्यक्ति कभी भी मुझ पर समर्पण नहीं करते|
हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के सौभाग्यशाली व्यक्ति मुझे पूजते हैं – वह जो दुखी हैं, जो जिज्ञासु हैं, जो धन चाहते हैं, और वह जो आत्म-साक्षात्कार की इच्छा रखते हैं| इनमें से, जो आत्म-साक्षात्कार की इच्छा रखता है, वह श्रेष्ठ है| वह सदा मेरे विचारों में लीन रहता है और भक्ति-योग में लगा रहता है| मैं उसे बहुत प्रिय हूं और वह मुझे बहुत प्रिय है|
नि:संदेह वे सभी धार्मिक है, फिर भी मैं आत्मबोध-युक्त ज्ञानी को अपना स्व मानता हूं, क्योंकि उसका मन अपने अंतिम लक्ष्य के रूप में मुझ में ही पूर्ण रूप से अचल है|
आने को जनों की पश्चात, जो ज्ञानवान है, वह मुझ पर आत्मसमर्पण करता है| वह जान लेता है कि वासुदेव ही समस्ती के मूल स्रोत हैं| ऐसे महान व्यक्तित्व बहुत ही दुर्लभ होते हैं|
जिनकी बुद्धि विभिन्न भौतिक इच्छाओं के कारण मारी गई है वे अन्य देवताओं की शरण में जाते हैं| अपने स्वभाव के अनुसार वे विभिन्न अनुष्ठान करते हैं| व्यक्ति जिस देवी-देवता के स्वरूप की आस्था के साथ पूजा करने की इच्छा रखता है, मैं उस विशेष रूप के लिए उसकी श्रद्धा को मजबूत बनाता हूं|
जो श्रद्धा के साथ उस विशेष रूप की पूजा करता है, वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति मेरी अनुमति के कारण ही प्राप्त करता है| परंतु, अल्पबुद्धि व्यक्तियों द्वारा प्राप्त यह परिणाम अस्थाई होते हैं| जो लोग देवताओं की पूजा करते हैं, वह उन्हीं के निकट पहुंचते हैं, किंतु मेरे भक्त मुझे प्राप्त करते हैं|
मेरा स्वभाव शाश्वत, सर्वोत्तम और अविनाशी है| तदापि अल्पबुद्धि इसे समझ नहीं सकते हैं, और इस प्रकार मेरी पहचान करते हैं कि किसी अवयैक्तिक के तत्व ने अब एक भौतिक (अशाश्वत) स्वरूप धारण कर लिया है|
मैं सभी के लिए प्रकट नहीं होता| मैं अपनी योग माया शक्ति से प्रच्छन्न हूं| और इसलिए मूर्ख मुझे शाश्वत और अजन्मे के रूप में नहीं पहचान सकते|
हे अर्जुन, मैं भूत, वर्तमान एवं भविष्य को जानता हूं| मैं समस्त जीवों को भी जानता हूं, किंतु मुझे कोई नहीं जानता|
हे शत्रु विजई, सृष्टि के आरंभ में सभी जीव इच्छा और घृणा के द्वंदों से व्यग्र होकर जन्म लेते हैं|
यद्यपि, जो लोग पुण्य कार्य करते हैं वह सभी प्रतिक्रियाओं से शुद्ध हो जाते हैं- वे द्वंदों के भ्रम से मुक्त हो जाते हैं और दृढ़-निष्ठा से मेरी पूजा करते हैं| जो लोग मेरा आश्रय लेकर वृद्धावस्था और मृत्यु से मुक्त होने का प्रयास करते हैं, व्यक्तिगत आत्मा और कर्म व कर्म की प्रक्रिया के नियमों को जानते हैं|
जो मुझे भौतिक द्रव्य के नियंता, देवताओं के नियंता एवं सभी यज्ञों के भोक्ता के रूप में जानते हैं- मृत्यु के समय अपने मन को मुझ पर केंद्रित करके मुझे जान जाते हैं|
ॐ तत्सत- श्रीमद् भागवत गीता उपनिषद में श्री कृष्ण और अर्जुन के संवाद से लिए गए ज्ञान-विज्ञान योग नमक सातवें अध्याय की यहां पर समाप्ति होती है|
आपका कोटि-कोटि धन्यवाद, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण ||
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