Bhagavad Gita Updesh– मैं आदित्ययों में विष्णु हूं, मैं रुद्रो में शिव हूं, वाणी में दिव्य ओंकार (ॐ) हूं,शस्त्र चलाने में मैं राम हूं, मैं सर्वभक्षी मृत्यु हूं, मैं समस्त सृष्टियों का आदि, मध्य और अंत हूं|
जय श्री कृष्ण, मैं हूं विशाल यादव, आपका दोस्त, और मैं गीता उपदेश के अध्याय 10 के श्लोको का सार तत्व यहां पर लिख रहा हूं, और आशा करता हूं की यह गीता ज्ञान जो प्रभु श्री कृष्ण द्वारा कही गई है, आपको जीवन में नई ऊंचाइयां और सफलताओं को पाने में मार्गदर्शन करेगी| जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण|
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विभूति योग
भगवान श्री कृष्ण के वचन-
हे महाबाहु, एक बार पुनः इन परम उपदेशों को सुनो| क्योंकि मैं तुम्हारा हित चाहता हूं, और तुम मुझे अत्यंत प्रिय हो, इसलिए मैं इन उपदेशों को तुम्हें बताता हूं|
न देवताओं को और न महर्षियों को को मेरे उद्गम का पता है| वास्तव में, मैं ही देवताओं एवं ऋषि मुनियों की उत्पत्ति का मूल कारण हूं| जो मुझे जन्महीन, अनादि, तथा दुनिया के सर्वोच्च नियंत्रक के रूप में जानता है, वह नश्वरो में भ्रांति-विहीन है, और सभी कर्मों से मुक्त है|
बुद्धिमता, ज्ञान, भ्रम से मुक्ति, सहिष्णुता एवं क्षमाभाव, सत्यता, आत्म नियंत्रण, सुख, दु:ख, जन्म, मृत्यु, भय और निर्भयता, अहिंसा, समभाव, संतुष्टि, तपस्या, दानशीलता, यश और अपयश- यह सभी जीवो की विविध अवस्थाएं मेरे ही द्वारा उत्पन्न होती हैं|
सप्तर्षीगण, चार कुमार, और मनु, जिनके द्वारा इस संसार के सभी प्राणी अवतरित हुए हैं, यह सभी मेरे मन से प्रकट हुए हैं|
जो मेरे वैभव, ऐश्वर्य एवं योग के तत्व को जानता है, वह अविकल्प रूप से मेरे साथ एक हो जाता है| इसमें तनिक भी संदेह नहीं है|
मैं सभी वस्तुओं का स्रोत हूं| सभी वस्तुएं मुझसे ही अद्भुत होती हैं| यह समझकर, बुद्धिमान व्यक्ति जिन्हें मेरा प्रेम प्राप्त है वह हृदय से मेरी पूजा करते हैं|
जो सदैव मेरा चिंतन करते हैं, जिन्होंने अपना सारा जीवन मेरे लिए समर्पित कर दिया है, वे परस्पर एक दूसरे को मेरे ज्ञान से आलोकित करते हैं तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परम संतोष तथा आनंद का अनुभव करते हैं|
जो सदैव मुझ पर समर्पित है और प्रेम पूर्वक मुझे पूजते हैं मैं सदा उन्हें भक्तिपूर्ण प्रेरणा प्रदान करता हूं, जिससे कि वह मेरे पास आ सके| मैं उन पर विशेष कृपा करने हेतु उनके हृदय में प्रकट होकर ज्ञान के प्रकाशमान चिराग द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूं|
अर्जुन के वचन-
आप सर्वोच्च ब्रह्मन (ब्रह्म ज्योति) हैं, सर्वोच्च आश्रय हैं, और सबसे पवित्र हैं| आप शाश्वत परम पुरुष हैं, सबसे दिव्य हैं, मौलिक देवत्व हैं, अजन्मे में तथा सर्वव्यापी हैं| सभी ऋषियों जैसे कि नारद, असित, देवल और व्यास ने यही कहा है, जैसे कि आपने मुझे बताया है|
है केशव! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूं| हे प्रभु! ना तो देवतागण नही असुरगण आपके व्यक्तित्व को पूरी तरह से समझ सकते हैं|
हे परमपुरुष! हे सबके उद्गम, हे समस्त प्राणियों के स्वामी, हे देवों के देव, हे जग के स्वामी! केवल आप ही अपने स्वयं को वास्तव में जानते हैं| कृपा करके विस्तार पूर्वक आप अपनी दिव्य शक्तियों को मुझे वर्णन करें जिनके द्वारा आप समस्त लोको में व्याप्त हैं |
है समस्त योग शक्तियों के स्वामी! मैं किस तरह आपका निरंतर चिंतन कर सकता हूं, आपको मैं कैसे जानू और आप पर ध्यान कैसे करूं?
हे जनार्दन, कृपया मुझे अपनी योग शक्तियों और विभूतियों के बारे में विस्तार से बताएं| आपके विषय पर अमृत वचनों के श्रवण से मैं कभी तृप्त नहीं होता हूं|
भगवान श्री कृष्ण के वचन-
सुनो, हे कुरु वंश के सर्वश्रेष्ठ, मेरी शक्तियों एवं ऐश्वर्य असीम हैं, उनकी सीमा का कोई अंत नहीं है, किंतु मैं तुमसे केवल अपने उन दिव्या वैभव का वर्णन करता हूं जो सबसे प्रधान हैं |
हे अज्ञान के निद्रा के विजई, अर्जुन! में समस्त जीवों के हृदय में स्थित परमात्मा हूं| मैं ही समस्त जीवों का आदि, मध्य तथा अंत हूं|
मैं आदित्ययों में विष्णु, ज्योतियों में तेजस्वी सूर्य, मारुति में मरीचि, तथा नक्षत्ररों में चंद्रमा हूं| मैं वेदों में सामवेद हूं, देवों में इंद्र हूं, इंद्रियों में मन हूं, समस्त जीवन की जीवनशक्ति या चेतना हूं| मैं रुद्रो में शिव हूं, यक्ष तथा राक्षसों में कुबेर हूं, वासुओं में अग्नि हूं, और पर्वतों में मेरु हूं|
हे पार्थ! पुरोहितों में मुझे मुख्य पुरोहित बृहस्पति जानो| मैं सेनानायकों में कार्तिकेय हूं, एवं जलाशयों में समुद्र हूं| महर्षियों में भृगु हूं, वाणी में दिव्य ओंकार (ॐ) हूं, यज्ञों में जप हूं, तथा अंचलों में हिमालय हूं|
समस्त वृक्षों में मैं अश्वत्थ हूं| देवर्षियों में नारद हूं| मैं गंधों में चित्ररथ हूं, और सिद्धों में कपिल मुनि हूं|
अश्ववो में मुझे उच्चैःश्रव जानो, जो समुद्र मंथन के समय उत्पन्न हुआ था| गजों में मैं गजराज ऐरावत हूं, तथा मनुष्य में राजा हूं| आयुधो में मैं वज्र हूं, गायों में कामधेनु हूं| प्रजनको में कामदेव, तथा सों में वासुकि हूं|
नागलोक के नागों में मैं अनंत हूं, और जलचरो में मैं वरुणदेव हूं| पितरों में मैं अर्यमा हूं, तथा दंड-दायकों में मैं यम हूं| मैं दैत्य में प्रहलाद हूं, प्रतिबंधों में काल हूं, मैं पशुओं में सिंह हूं, तथा पक्षियों में गरुड़ हूं|
शुद्ध करने वालों में मैं वायु हूं| शस्त्र चलाने में मैं राम हूं| जल जंतुओं में मैं मकर, और नदियों में गंगा हूं|
हे अर्जुन! मैं समस्त सृष्टियों का आदि, मध्य और अंत हूं| मैं विद्याओं में अध्यात्म विद्या हूं, और तर्क-शास्त्रियों में मैं निर्णायक सत्य हूं|
मैं अक्षरों में आकर हूं, और समासों में द्वंद समास हूं| में ही काल की निरंतर धारा हूं, और स्रष्टाओ में ब्रह्मा हूं|
मैं सर्वभक्षी मृत्यु हूं, और मैं ही भविष्य के प्रकट होने का कारण हूं| स्त्रियों में मैं कीर्ति, श्री, वाक, स्मृति, मेधा, धृति तथा क्षमा हूं|
सामवेद के स्तुतियों में मैं वृहत्साम शाम हूं, आयुर्वेदिक छंदों में मैं गायत्री हूं| मासो में मैं मार्गशीर्ष तथा ऋतु में फूल खिलने वाली वसंत ऋतु हूं|
छलियो में मैं द्युतक्रीडा हूं, और तेजस्वियों में तेजस हूं| मैं विजय एवं साहस हूं और बलवानों का बल हूं|
वृष्णिवंशियों मैं मैं वासुदेव और पांडवों में अर्जुन हूं| मैं मुनियों में व्यास मुनि तथा महान विचारकों में उशना कवि हूं|
मैं दंड देनेवालों का दंड हूं| विजय के आकांक्षियों की मैं नीति हूं| रहस्यों में मैं मौन हूं, और ज्ञानियों का ज्ञान हूं|
हे अर्जुन! मैं समस्त जीवित-प्राणियों का जनक बीज हूं| अस्तित्व में ऐसा कोई चर या अचर वस्तु नहीं जो मेरे बिना अस्तित्वमान हो|
हे परंतप! मेरी दिव्य विभूतियां असंख्य है| मैं तुमसे केवल उदाहरण के लिए अपने अनंत विभूतियों के मात्र एक अंश का वर्णन किया है|
जानो की जो भी ऐश्वर्य युक्त, सुंदर तथा तेजस्वी सृष्टियां अस्तित्व में है, मेरे ही शक्ति के एक अंश मात्र से ही उद्भूत हुए हैं|
किंतु हे अर्जुन! यह सब जानने की आवश्यकता क्या है? मेरे एक अंश मात्र से ही यह संपूर्ण जगत आधारित है|
ॐ तत्सत- श्रीमद् भागवत गीता उपनिषद में श्री कृष्ण और अर्जुन के संवाद से लिए गए विभूति योग नामक दसवेें अध्याय की यहां पर समाप्ति होती है|
आपका कोटि-कोटि धन्यवाद, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण ||
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