Bhagavad Gita Updesh प्रकृति-परुुष विवेक योग Best Part 13

Bhagavad Gita Updesh प्रकृति-परुुष विवेक योग – इच्छाहीनता, विनम्रता, अहिंसा, सहिष्णुता, सादगी, आध्यात्मिक गुरु की सेवा, पवित्रता, दृढ़ता,आत्म-नियंत्रण, इंद्रिय संतुष्टि से वैराग्य, मिथ्या अहंकार का न होना, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था एवं व्याधि का बोध होना, अनासक्ति, पत्नी, बच्चों तथा गृहस्थ जीवन के प्रति लगाव से मुक्ति, सुखी और संकटपूर्ण परिस्थितियों में सदैव समवत्तिृ बनाए रखना, मेरे प्रति निरंतर और दृढ़ भक्ति का होना, एकांत स्थान में निवास करना, जनसाधारण के साथ सामाजिकता की इच्छा से मुक्त होना, आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने में दृढ़ संकल्प का होना, पूर्ण सत्य का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखना- इन सभी गुणों को ज्ञान कहा गया है, और उनके विरोधी गुणों को आज्ञान कहा गया है| 

Bhagavad Gita Updesh प्रकृति-परुुष विवेक योग
Bhagavad Gita Updesh प्रकृति-परुुष विवेक योग

जय श्री कृष्ण, मैं हूं विशाल यादव, आपका दोस्त, और मैं गीता उपदेश के अध्याय 13 के श्लोको का सार तत्व यहां पर लिख रहा हूं, और आशा करता हूं की यह गीता ज्ञान जो प्रभु श्री कृष्ण द्वारा कही गई है, आपको जीवन में नई ऊंचाइयां और सफलताओं को पाने में मार्गदर्शन करेगी| जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण|

प्रकृति-परुुष विवेक योग

अर्जुन के वचन-

हे केशव मैं भौतिक प्रकृति, इसके भोक्ता, क्षेत्र, क्षेत्र के ज्ञाता, ज्ञान एवं ज्ञान के विषय में जानना चाहता हूं|

श्री कृष्ण के भजन-

हे कुंती पुत्र, इस शरीर को क्षेत्र कहा जाता है और जो इस क्षेत्र को जानता है, प्रज्ञ उन्हें क्षेत्रज्ञ कहा जाता है |

हे भारत! तुम्हें यह जानना चाहिए कि मैं ही सभी क्षेत्रों का ज्ञाता हूं| क्षेत्र एवं क्षेत्र के ज्ञान को ही मैं वास्तविक ज्ञान मानता हूं|

अब मुझसे यह संक्षेप में सुनो की वह क्षेत्र क्या है, किन वस्तुओं का वह बना है, उसके विकार क्या हैं, उसकी उत्पत्ति और क्षेत्र का ज्ञाता कौन है और उसका उसे पर प्रभाव क्या है|

यह ज्ञान अलग-अलग ऋषियों द्वारा, वेदों द्वारा, विभिन्न रूप से छंदों में वर्णित है, और वेदांत-सूत्र के तार्किक निर्णयात्मक अध्यायों में पाया जाता है|

Bhagavad Gita Updesh
Bhagavad Gita Updesh प्रकृति-परुुष विवेक योग

इसके मुख्य तत्व, मिथ्या अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त भौतिक प्रकृति, दस इंद्रियां, मन, पंच इंद्रिय-वस्तुएं, इच्छा, घृणा, सुख, पीड़ा, स्थूल शरीर, चेतना और संकल्प हैं| यहां वर्णित इन सभी तत्वों को क्षेत्र माना जाता है|

इच्छाहीनता, विनम्रता, अहिंसा, सहिष्णुता, सादगी, आध्यात्मिक गुरु की सेवा, पवित्रता, दृढ़ता,आत्म-नियंत्रण, इंद्रिय संतुष्टि से वैराग्य, मिथ्या अहंकार का न होना, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था एवं व्याधि का बोध होना, अनासक्ति, पत्नी, बच्चों तथा गृहस्थ जीवन के प्रति लगाव से मुक्ति, सुखी और संकटपूर्ण परिस्थितियों में सदैव समवत्तिृ बनाए रखना, मेरे प्रति निरंतर और दृढ़ भक्ति का होना, एकांत स्थान में निवास करना, जनसाधारण के साथ सामाजिकता की इच्छा से मुक्त होना, आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने में दृढ़ संकल्प का होना, पूर्ण सत्य का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखना- इन सभी गुणों को ज्ञान कहा गया है, और उनके विरोधी गुणों को आज्ञान कहा गया है|

अब मैं ज्ञान के उद्देश्य (ज्ञेय) का वर्णन करूंगा, जिसे जानकर व्यक्ति अमरता को प्राप्त कर लेता है| यह मेरे अधीनस्थ है और यह परम ब्रह्मन है जो भौतिक कारण व प्रभाव से परे है|

Bhagavad Gita Updesh
Bhagavad Gita Updesh प्रकृति-परुुष विवेक योग

उसके हाथ और पैर सर्वत्र हैं| उसकी आंखें, उसके सिर और मुंह सर्वत्र हैं| उसके कान सर्वत्र हैं| इस प्रकार वह सभी वस्तुओं में व्याप्त है|

वह सभी इंद्रियों और उनके प्रकार्यों को प्रकाशित करता है, हालांकि वह स्वयं किसी भी भौतिक इंद्रियों से रहित है| वह अनासक्त होते हुए भी सभी का पालनकर्ता है| यद्यपि वह सभी भौतिक गुणों से रहित है, तथापि वह सभी गुणों का स्वामी है|

वह सभी चल वह अचल प्राणियों में स्थित है| वह निकट है और उसी समय दूर भी है| अतः वह अतिसूक्ष्म है और उसे पूरी तरह समझना कठिन है|

यद्यपि ऐसा लगता है कि वह सभी जीवित प्राणियों में विभाजित है, वास्तव में वह अविभाजित है| वही सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता एवं संहारक कहलाता है|

उसे अंधकार से परे, सभी प्रकाशमानों में सबसे तेजोमय कहा जाता है| वह ज्ञान, ज्ञेय एवं सभी ज्ञान का उद्देश्य है|

इस प्रकार क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय को संक्षेप में समझाया गया है| इसे समझकर मेरे भक्त मेरे प्रति प्रेम प्राप्त करते हैं|

Bhagavad Gita Updesh
Bhagavad Gita Updesh प्रकृति-परुुष विवेक योग

यह जानों की भौतिक प्रकृति और जीवित प्राणी दोनों का कोई आदि नहीं होता| यह समझने का प्रयास करो कि सभी विकार और प्राकृतिक गुण इस भौतिक प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं|

यह कहा जाता है कि भौतिक प्रकृति सभी कारणों व परिणामों का स्रोत है| जीवित प्राणी स्वयं ही अपने सुख एवं दुख का कारण है|

भौतिक प्रकृति में स्थित, जीवित प्राणी भौतिक प्रकृति से उत्पन्न गुणों का भोग करते हैं| इन गुणों के साथ जुड़ाव का कारण, जीवित प्राणी जीवन की उच्च और निम्न प्रजातियों में बार-बार जन्म लेते हैं|

परम पुरुष जिन्हें परम चेतना (परमात्मा) के रूप में जाना जाता है, इस शरीर के भीतर निवास करते हैं| वे सब के साक्षी, परम अधिकारी, पोषणकर्ता, पालनकर्ता एवं सर्वोच्च नियंत्रक हैं|

इस प्रकार, जो परम पुरुष, भौतिक प्रकृति और भौतिक प्रकृति के गुणों को पूर्ण रूप से समझते हैं, वे किसी भी परिस्थिति में पुनः जन्म नहीं लेते हैं|

कुछ योगी ध्यान के माध्यम से हृदय-स्थित परम पुरुष का आभास करते हैं| कुछ अन्य योगी सांख्य योग की विश्लेषण प्रक्रिया के माध्यम से, जबकि कुछ अन्य उन्हें कर्म-योग के द्वारा अनुभव करते हैं|

कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इन विधियो को नहीं जानते, किंतु केवल दूसरों से सुनकर ही वह उनकी पूजा में संलग्न हो जाते हैं| क्योंकि उन्होंने जो कुछ सुना है, उस पर उनकी श्रद्धा है इसलिए वे भी मृत्यु से पहले हो जाते हैं|

हे भरतवंश के सर्वश्रेष्ठ, यह जानों की जो कुछ चर और अचर विद्यमान है वह क्षेत्र और क्षेत्र के ज्ञाता के संयोजन से ही प्रकट होता है|

Bhagavad Gita Updesh पुरुषोत्तम योग
Bhagavad Gita Updesh प्रकृति-परुुष विवेक योग

कोई वास्तव में तब देखा है, जब वह परमेश्वर को सभी में स्थित देखता है और इस बात की अनुभूति करता है कि ना तो परम चेतना (परमात्मा) न व्यक्तिगत चेतना (आत्मा) नश्वर है|

सभी स्थानों पर परमेश्वर को देखने से व्यक्ति कभी भ्रष्ट नहीं होता और तब वह भगवान के परमधाम को प्राप्त करता है|

जो यह अनुभूति प्राप्त करता है की सभी गतिविधियां भौतिक प्रकृति द्वारा ही कार्यान्वित होते हैं, वही समझता है कि वह कर्ता नहीं है|

जब व्यक्ति वस्तुतः देखने लगता है, तब वह अपने स्वयं का अपने शरीर के साथ पहचान करना छोड़ देता है| यह समझते हुए की सभी जीवित प्राणी समान है, वह ब्रह्म ज्ञान को प्राप्त करता है और सभी और उसका विस्तार देखता है|

हे कुंती पुत्र, परम चेतना (परमात्मा) का कोई आदि नहीं है, वह भौतिक प्रकृति के गुणों से परे हैं, पारलौकिक हैं, एवं असीम हैं| यद्यपि वे प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में स्थित है किंतु वे न तो कोई कार्य करते हैं, न ही वे किसी कार्य से प्रभावित होते हैं|

जिस प्रकार सर्वव्यापी अंतरिक्ष का सूक्ष्म तत्व किसी भी चीज के साथ घुलता नहीं है, उसी प्रकार आत्मा की व्यक्तिगत इकाई भी भौतिक शरीर के साथ नहीं घुलती, हालांकि वह शरीर के भीतर स्थित है|

हे भारत, जैसे एक सूर्य पूरे ब्रह्मांड को प्रकाशित करता है, वैसे ही क्षेत्री (क्षेत्र का स्वामी) पूरे क्षेत्र को रोशन करता है|

जो शरीर और स्वयं के बीच के अंतर को पहचानता व परखता है, और जो भौतिक बंधन से मुक्ति की प्रक्रिया को समझता है, वह भी सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त करता है|

Bhagavad Gita Updesh
Bhagavad Gita Updesh प्रकृति-परुुष विवेक योग

ॐ तत्सत- श्रीमद् भागवत गीता उपनिषद में श्री कृष्ण और अर्जुन के संवाद से लिए गए प्रकृति-परुुष विवेक योग नामक तेरहवेें अध्याय की यहां पर समाप्ति होती है|

आपका कोटि-कोटि धन्यवाद, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण ||

 

7 thoughts on “Bhagavad Gita Updesh प्रकृति-परुुष विवेक योग Best Part 13”

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