Bhagavad Gita राजगुह्य योग– मैं ही अनुष्ठान हूं, मैं ही यज्ञ हूं, मैं ही अर्पण हूं, मैं ही पवित्र औषधि हूं, मैं ही मंत्र हूं, मैं ही घी हूं, मैं ही पवित्र अग्नि हूं, और मैं ही अर्पण की विधि हूं| मैं ही इस जगत की माता और पिता हूं, मैं ही पालनकर्ता, पितामह, ज्ञान का उद्देश्य, शुद्धिकर्ता, ॐ अक्षर हूं, और मैं ही ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद हूं|
![Bhagavad Gita Updesh](https://eternalshrikrishna.com/wp-content/uploads/2023/12/peakpx-1-1-760x1024.jpg)
जय श्री कृष्ण, मैं हूं विशाल यादव, आपका दोस्त, और मैं गीता उपदेश के अध्याय 9 के श्लोको का सार तत्व यहां पर लिख रहा हूं, और आशा करता हूं की यह गीता ज्ञान जो प्रभु श्री कृष्ण द्वारा कही गई है, आपको जीवन में नई ऊंचाइयां और सफलताओं को पाने में मार्गदर्शन करेगी| जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण|
Table of Contents
Toggleअध्याय 9
राजगुह्य योग
भगवान श्री कृष्ण के वचन-
प्रभु ने कहा- हे अर्जुन! चूंकि तुम ईर्ष्या से रहित हो, इसलिए मैं तुम्हें सबसे गूढ़ रहस्य बताऊंगा| मैं इस ज्ञान और इसकी अनुभूति को समझाऊंगा, जिसे जानकर तुम संसार के अमंगल से मुक्त हो जाओगे| यह सभी विद्या में सर्वोपरि (राज-विद्या) है, समस्त रहस्ययों में सर्वाधिक गोपनीय (राज-गुह्य) है| यह सबसे पवित्र और सबसे उत्कृष्ट है| धर्म का यह मार्ग प्रत्यक्ष रूप से समझा जा सकता है, और यह अभ्यास में सहज एवं अविनाशी है|
हे शत्रु विजेता, जिन्हें धर्म के इस मार्ग पर श्रद्धा नहीं है, वह मुझे कभी प्राप्त नहीं कर सकते और वह जन्म एवं मृत्यु के निरंतर चक्र में पुनर्जन्म लेने के लिए मजबूर हो जाते हैं|
मैं अपने अप्रकट रूप से पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त हूं| सभी जीव मेरे सहारे हैं, लेकिन मैं उनके सहारे नहीं हूं| तथापि सृष्टि के सभी वस्तुएं मुझमें स्थित नहीं रहती| जरा मेरे योग-ऐश्वर्य को देखो! यद्यपि मैं समस्त जीवों का मूल (स्रोत) एवं पालक हूं, लेकिन मैं ना तो उनसे प्रभावित हूं, ना ही मेरी भौतिक प्रकृति से|
![Bhagavad Gita राजगुह्य योग](https://eternalshrikrishna.com/wp-content/uploads/2023/12/pxfuel-5-2.jpg)
यह समझने का प्रयास करो कि जिस तरह से प्रबल वायु विशाल आकाश के विस्तार में स्थित है, इस तरह सभी जीव मुझ में स्थित है|
हे कुंतीपुत्र, ब्रह्मा के दिन के अंत में, सभी जीव मेरे भीतर प्रवेश करते हैं| और एक नए सृष्टि के आरंभ में, मैं फिर से उन्हें प्रकट करता हूं|
क्योंकि मैं भौतिक प्रकृति को नियंत्रित करता हूं, मैं बारंबार जीवित प्राणियों को प्रकट करता हूं, जो असहाय रूप से पूरी तरह से अपने प्राकृतिक स्वभाव के प्रभाव में होते हैं|
हे धनंजय, ऐसे कर्म मुझे बंद नहीं सकते| मैं इन कर्मों के प्रति विरक्त और उदासीन रहता हूं| हे कुंतीपुत्र, यह भौतिक प्रकृति मेरी अध्यक्षता में ही चर तथा अचर प्राणियों समेत जगत की सृष्टि करती है| प्रकृति के प्रभाव से ही जगत के लगातार सृष्टि एवं विनाश होता रहता है|
जब मैं मनुष्य रूप में प्रकट होता हूं, तब मूर्ख मेरा उपहास करते हैं, क्योंकि वे सभी जीवो के सर्वोच्च नियंत्रक के रूप में मेरे दिव्य स्वभाव को नहीं जानते|
उनकी सभी आकांक्षाएं, कर्म और ज्ञान निरर्थक और निस्सार है| ऐसे व्यक्ति नीच एवं आसुरी भी स्वभाव को अपनाकर व्यग्र हो जाते हैं| परंतु, जो महापुरुष मेरे दिव्य प्रकृति का शरण ग्रहण करते हैं, वह मुझे सभी जीवो का अविनाशी स्रोत मानकर स्थिर मन से मेरी पूजा करते हैं|
![Bhagavad Gita Updesh गुणत्रय विभाग योग](https://eternalshrikrishna.com/wp-content/uploads/2023/12/peakpx-3-576x1024.jpg)
यह योग-भक्ति सदैव मेरी महिमा गाते हुए, दृढ़ संकल्प से प्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए, भक्ति भाव से निरंतर मेरी पूजा करते हैं| कुछ, अपने आप को मुझे अलग न मानते हुए, ज्ञान-यज्ञ के माध्यम से मुझे पूजते हैं| अन्य मुझे कई विविध रूपों में पूजते हैं, जब कई अन्य मेरे विश्व रूप (विराट-रूप) की पूजा करते हैं|
मैं ही अनुष्ठान हूं, मैं ही यज्ञ हूं, मैं ही अर्पण हूं, मैं ही पवित्र औषधि हूं, मैं ही मंत्र हूं, मैं ही घी हूं, मैं ही पवित्र अग्नि हूं, और मैं ही अर्पण की विधि हूं| मैं ही इस जगत की माता और पिता हूं, मैं ही पालनकर्ता, पितामह, ज्ञान का उद्देश्य, शुद्धिकर्ता, ॐ अक्षर हूं, और मैं ही ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद हूं|
मैं ही सर्वोच्च लक्ष्य, पालनकर्ता, गुरु, साक्षी, धाम, आश्रय और अत्यंतप्रिय मित्र हूं| मैं ही सृजन, पालन, और प्रलय हूं| मैं ही सबका आश्रय, निधान, तथा अविनाशी बीज हूं| हे अर्जुन, मैं ही गर्मी पैदा करता हूं और मैं ही वर्षा को लाता हूं और रोकता हूं| मैं ही अमरत्व का साक्षात मृत्यु हूं| मैं ही वास्तविक और भ्रम हूं|
जो तीनों वेदों में निपुण है वह परोक्ष रूप से मेरी ही पूजा करते हैं, और सोम रस के पान से पवित्र होकर स्वर्ग लोक की प्राप्ति करते हैं| वह अपने पुण्य के द्वारा इंद्रलोक पहुंचते हैं, जहां वे देवताओं की भांति सुख होते हैं|
स्वर्ग लोक के व्यापक सुख का आनंद भोगने के बाद, जब उनके पुण्य कर्म के फल क्षीण हो जाते हैं, तब वह पुनः इस मृत्युलोक में लौट आते हैं, इसलिए, भौतिक भोग प्राप्त करने के लिए वैदिक अनुष्ठान करने वालों का फल क्षणभंगुर है|
किंतु जो लोग अनन्य भाव से मेरे ध्यान में लीन रहते हैं, मेरी पूजा करते हैं और सदैव मेरे साथ जुड़े रहते हैं, उनकी जो कमियां हैं उन्हें मैं पूरा करता हूं और जो उनके पास है उन्हें सुरक्षित रखता हूं| हे कुंतीपुत्र! जो लोग श्रद्धा के साथ अन्य देवी देवताओं की पूजा करते हैं, वास्तव में वह मेरी ही पूजा करते हैं, किंतु वे यह अनुचित ढंग से करते हैं|
मैं ही समस्त यज्ञो का भोक्ता एवं स्वामी हूं| किंतु जो लोग मेरे वास्तविक दिव्य स्वभाव से अनभिज्ञ है, उनका आत्म-साक्षात्कार की मार्ग से पतन हो जाता है|
![Bhagavad Gita Updesh](https://eternalshrikrishna.com/wp-content/uploads/2023/12/peakpx-23-896x1024.jpg)
देवताओं के उपासक देवलोक प्राप्त करते हैं| जो पितरों को पूजते हैं हमें पितरों के पास जाते हैं| भूत और आत्माओं के उपासक भूत और आत्माओं की दुनिया में जाते हैं| लेकिन जो लोग मेरी पूजा करते हैं वह मेरे पास आते हैं|
यदि कोई भक्ति से मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं अपने शुद्ध हृदय वाले भक्त से इनका स्वीकार करता हूं|
हे कुंतीपुत्र! तुम जो भी कार्य करो, जो भी खाओ, जो भी यज्ञ में आहुति दो, जो कुछ भी दान दो, और जो भी तपस्या करो, उसे मुझ पर अर्पण की मनोभाव से करो| ऐसा करने से, तुम कर्म के बंधन से तथा इसके शुभ और अशुभ फलों से मुक्त हो सकोगे| अपने कर्मों की परिणामों को त्याग कर और अपने आप को योग में मेरे साथ जोड़कर, तुम मुक्त होकर मुझे प्राप्त करोगे|
सभी जीवों के लिए मुझ में समभाव है| मैं ना तो किसी से द्वेष करता हूं और ना ही किसी का पक्ष लेता हूं| किंतु जो भी भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करता है वह मुझ में स्थित है और निश्चित रूप से मैं उसके साथ हूं|
भले ही किसी ने जघन्य से जघन्य कर्म किया हो, किंतु यदि वह अनन्य भक्ति से मेरी पूजा करता है, तो ऐसे व्यक्ति को साधु माना जाना चाहिए क्योंकि उसका संकल्प उचित है|
वह तुरंत धर्मात्मा बन जाता है और अस्थाई शांति प्राप्त करता है| हे कुंतीपुत्र! निडर होकर घोषणा कर दो कि मेरे भक्ति का कभी विनाश नहीं होता|
हे पार्थ! जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वह भले ही निम्न-जन्में, स्त्री, वैश्य (व्यापारी), या शुद्र (श्रमिक) ही क्यों ना हो, वह भी परमधाम को प्राप्त करते हैं| फिर शुद्ध ब्राह्मणो, और धर्मपरायण राजाओं का क्या कहना? अतः जब तुम इस नश्वर एवं दुखद में संसार में आए हो तो अपने आप को मुझ पर समर्पित करो|
सदैव मेरा चिंतन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो, मुझे नमन करो, इस तरह, मुझ पर आत्मसमर्पण करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त करोगे| और जीवन के अंत में वे निश्चित रूप से उनके परमधाम में श्री कृष्ण को प्राप्त करते हैं|
![Bhagavad Gita राजगुह्य योग Part 9](https://eternalshrikrishna.com/wp-content/uploads/2023/12/pxfuel-2-725x1024.jpg)
ॐ तत्सत- श्रीमद् भागवत गीता उपनिषद में श्री कृष्ण और अर्जुन के संवाद से लिए गए राजगुह्य योग नामक नौवेें अध्याय की यहां पर समाप्ति होती है|
आपका कोटि-कोटि धन्यवाद, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण ||
शुभारम्भ