Bhagavad gita ध्यान योग-अपने शरीर, सिर एवं गर्दन को सीधा रखकर, योगी को अचल व स्थिर रहना चाहिए, और इस अवस्था में किसी अन्य दिशा पर बिना दृष्टि डाले, अपनी नाक के सिरे को ताकते रहना चाहिए| अविचलित, निर्भय और ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए, उसे बैठकर, मुझे ही अपना सर्वोच्च लक्ष्य मानते हुए, मुझ पर ध्यान लगाकर अपने मन को वश में करना चाहिए|
जय श्री कृष्ण, मैं हूं विशाल यादव, आपका दोस्त, और मैं गीता उपदेश के अध्याय 6 के श्लोको का सार तत्व यहां पर लिख रहा हूं, और आशा करता हूं की यह गीता ज्ञान जो प्रभु श्री कृष्ण द्वारा कही गई है, आपको जीवन में नई ऊंचाइयां और सफलताओं को पाने में मार्गदर्शन करेगी| जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण|
अध्याय 6 -जय श्री कृष्ण
ध्यान योग
भगवान श्री कृष्ण के वचन- जय श्री कृष्ण
भगवान श्री कृष्ण ने कहा- जो अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन करता है और उन कार्यों के परिणामों का त्याग कर देता है, वह एक योगी एवं सन्यासी है| केवल अपने कर्मों का त्याग करके, बिना कोई कार्य किए, कोई भी संन्यासी नहीं बन सकता|
है पांडु पुत्र, जिसे सन्यास कहा जाता है वह दरअसल योग के समान होता है| इंद्रियों को संतुष्ट करने की इच्छा का त्याग किए बिना कोई भी कभी योगी नहीं बन सकता| जो योग मार्ग की प्रारंभिक अवस्था में है, उसके लिए कर्म ही माध्यम है| और जो योग में अभ्यस्त है, उसके लिए कर्म का त्याग ही माध्यम है|
जब किसी को ना तो इंद्रिय तृप्ति की वस्तुओं में लगाव होता है, और ना उन गतिविधियों से जो उनके आनंद की ओर ले जाए, उसे समय, या कहा जाता है कि किसी ने योग प्राप्त कर लिया है|
मनुष्य को अपने मन के द्वारा स्वयं को ऊपर उठाना चाहिए ना कि अपने आप को नीचे गिरने देना| निश्चित रूप से, मन मनुष्यों का मित्र होने के साथ-साथ उनका सबसे बड़ा शत्रु भी है| जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, उसके लिए उसका मन मित्र है| लेकिन, जिसने अपने मन को नियंत्रित नहीं किया है, उसके लिए उसका मन ही उसका सबसे बड़ा शत्रु है|
जिन्होंने अपने मन को वश में कर लिया है और जो शांत है, उन्हें परमात्मा(परम चेतना) की अनुभूति प्राप्त होती है| ऐसे व्यक्तियों के लिए सर्दी गर्मी, सुख-दुख एवं मान अपमान सभी एक समान होते हैं|
जो योगी अपने ज्ञान एवं आत्म साक्षात्कार के कारण आत्म संतुष्ट रहता है, वह योगी अपने आध्यात्मिक स्वभाव में स्थित रहकर, एवं अपने इंद्रियों को वश में रखकर, सभी वस्तुओं को एक समान रूप से देखता है, चाहे वह कंकर हो, या पत्थर हो, या सोना हो|
ऐसा निष्पक्ष-प्रज्ञावान योगी, सभी को, एक सच्चा शुभचिंतक, एक स्नेही उपकारी, शत्रु, तटस्थ व्यक्ति, एक मध्यस्थ, एक ईर्ष्यालु व्यक्ति, एक रिश्तेदार, एक पवित्र व्यक्ति, और एक अधार्मिक व्यक्ति को एक समान भेद से देखा है|
एक योगी को अपने मन और शरीर को पूरी तरह से नियंत्रित करके एकांत स्थान में निवास करना चाहिए| उसे समस्त आकांक्षाओं और संग्रहभाव से मुक्त होकर लगातार अपने मन को, अपनी अंतर-आत्मा पर केंद्रित करना चाहिए|
योगी को एक निर्मल वातावरण में एक ऐसा आसन स्थापित करना चाहिए जो ना तो बहुत ऊंचा हो और ना बहुत नीचा, फिर उस आसन पर कुशा, मृगछाला, एवं मुलायम वस्त्र बिछाना चाहिए| इस आसन पर बैठकर योगी को मन, इंद्रियों एवं कर्मों को वश में रखते हुए, मन को एक बिंदु पर एकाग्रित करके, अपने हृदय को शुद्ध करने के लिए योगाभ्यास करना चाहिए|
अपने शरीर, सिर एवं गर्दन को सीधा रखकर, योगी को अचल व स्थिर रहना चाहिए, और इस अवस्था में किसी अन्य दिशा पर बिना दृष्टि डाले, अपनी नाक के सिरे को ताकते रहना चाहिए| अविचलित, निर्भय और ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए, उसे बैठकर, मुझे ही अपना सर्वोच्च लक्ष्य मानते हुए, मुझ पर ध्यान लगाकर अपने मन को वश में करना चाहिए|
इस तरह योगी भौतिक इच्छाओं से अपने मन को हटाकर उसे नियंत्रित कर लेता है| तब वह परम शांति एवं भौतिक अस्तित्व से मुक्ति पाकर, मेरा धाम प्राप्त कर लेता है|
हे अर्जुन, बहुत अधिक खाने से या बहुत कम खाने से, ज्यादा सोने से या बहुत कम सोने से, कोई योग अभ्यास नहीं कर सकता| जो खाने और विश्राम करने में संयमित रहे, जो अपने सभी कार्यों को नियमित तरीके से करे, और जो अपने निद्रा एवं जागृत अवधियों में अच्छी संतुलन बनाए रखे, योग ऐसे व्यक्ति को की पीड़ा को नष्ट कर देता है|
जब स्थिर मन अनन्य भाव से स्वयं में स्थित होता है, तो वह व्यक्ति सभी भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है- ऐसा व्यक्ति योग में स्थित कहा जाता है| जिस तरह एक हवा रहित जगह पर एक ज्योति नहीं टिमटिमाती,उसी तरह स्वयं पर एकाग्रता, एक योगी का मन कभी नहीं लहराता|
जब योगाभ्यास से मन संयमित और शांत हो जाता है, तो वह भौतिक इच्छाओं से अलग हो जाता है| तब वह व्यक्ति स्वयं की अनुभूति कर सकता है एवं आनंद की प्राप्ति करता है| सांसारिक इंद्रियों के दायरे से परे और बुद्धि के माध्यम से प्राप्त, शाश्वत आनंद की इस अवस्था में स्थित होने की पश्चात, कोई भी वास्तविकता से विचलित नहीं होता| इस स्थिति को प्राप्त करने के बाद वह समझता है कि इससे श्रेष्ठ और कुछ नहीं है और वह बड़ी से बड़ी विपत्तियों में भी विचलित नहीं होता| तुम्हें यह समझना चाहिए कि यह अवस्था जिसमें समस्त दुखों का निवारण होता है, उसे ही योग कहते हैं|
संकल्प और अटूट मन के साथ योग का अभ्यास करना चाहिए| योग के अभ्यास करने के लिए, व्यक्ति को उन सभी विचारों का त्याग करना चाहिए जो भौतिक इच्छाओं के कारण बनते हैं और इस प्रकार मन के द्वारा इंद्रियों को वश में करके मन को इंद्रिय-वस्तुओं से अलग करना चाहिए| धीरे-धीरे, बुद्ध के माध्यम से मन को स्थिर करना चाहिए, और उसे केवल स्वयं (आत्मा) पर केंद्रित करना चाहिए, कहीं और नहीं|
मन का स्वभाव चंचल और अस्थिर होता है| फिर भी, व्यक्ति को अपने मन को भटकने से रोक उसे अपनी आत्मा के अधीन में लाने का प्रयत्न करना चाहिए|
परमानंद उस योगी को प्राप्त होता है जिसने अपने जुनून को वश में कर लिया है, जिसका मन शांत है, जो बुरे व्यसनों से मुक्त है, और जो सदैव आध्यात्मिक धरातल पर स्थित रहता है| इस प्रकार, योग के निरंतर अभ्यास के माध्यम से, एक जोगी जो भौतिक संदूषण से रहित है, परम सत्य के संपर्क के माध्यम से शाश्वत परमानंद की प्राप्ति कर सकता है|
जो परम सत्य से जुड़ा होता है, वह सभी चीजों को समान रूप से देखता है| वह सभी जीवित प्राणियों में परमात्मा को देखा है एवं सभी प्राणियों को परमात्मा में देखता है|
जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझ में देखता है उसके लिए ना तो मैं कभी लुप्त होता हूं और ना मेरे लिए कभी वह लुप्त होता है|
वह योगी है जो मुझे इस ज्ञान के साथ पूजता है कि मैं सभी जीवित प्राणियों में (परम चेतना के रूप में) स्थित हूं, सभी परिस्थितियों में मेरे साथ रहता है|
हे अर्जुन, जो सभी के सुख और दुख को समता से देखता (सम्मान देता) है, जैसे की यह(सुख और दुख) उसके अपने हैं, वह योगियो में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है|
अर्जुन के वचन-
अर्जुन ने कहा- हे मधुसूदन, आपने योग की जिस पद्धति का वर्णन किया है मैं उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता क्योंकि स्वभाव से ही मन बहुत अस्थिर (चंचल) है|
मन अनियमित, अशांत, बहुत शक्तिशाली और हठी (जिद्दी) है| हे कृष्ण, मुझे लगता है कि इसे नियंत्रित करना उतना ही कठिन है जितना की वायु को नियंत्रित करने का प्रयास करना|
प्रभु श्री कृष्ण के वचन-
भगवान श्री कृष्ण ने उत्तर दिया- हे महाबाहु, कुंती पुत्र! निसंदेह चंचल मन को वश में करना अत्यंत कठिन है; किंतु उपयुक्त अभ्यास एवं विरक्ति द्वारा मन को वश में करना संभव है|
मेरा निष्कर्ष यह है कि अगर किसी का मन अनियंत्रित हो तो उसके लिए योग कठिन है| किंतु जब व्यक्ति उचित अभ्यास द्वारा मन को नियंत्रित करने का प्रयास करता है तब वह सफल हो सकता है|
अर्जुन के वचन-
अर्जुन ने कहा- हे कृष्ण, एक ऐसे व्यक्ति की गंतव्य स्थान क्या है जिसमें श्रद्धा है किंतु योग की प्रक्रिया से अपने मन को वश में न कर पाने से वह सिद्धि प्राप्त नहीं करता?
हे महाबाहु कृष्ण, क्या ऐसा व्यक्ति आध्यात्मिक पद पर भ्रमित होकर, बिना आश्रय के, बिखरे बादल की भांति विनष्ट हो जाता है?
हे कृष्ण, केवल आप ही मेरा संदेश पूरी तरह से मिटा सकते हैं, कोई और नहीं|
भगवान श्री कृष्ण के वचन-
हे पार्थ, ऐसा व्यक्ति न इस जन्म में न अगले जन्म में विनष्ट होता है| जो धर्म का आचरण करता है वह कभी भी दुर्भाग्य का सामना नहीं करता|
जो योग के अभ्यास से भटक जाते हैं वह स्वर्गिक लोगों को प्राप्त करते हैं और कई वर्षों तक वहां रहते हैं| उसके पश्चात, वह किसी कुलीन और समृद्ध परिवार में मनुष्यों के बीच जन्म लेते हैं|
अन्यथा, वे एक विद्वान योगी के परिवार में जन्म लेते हैं| निसंदेह, इस तरह का जन्म इस संसार में दुर्लभ होता है|
हे अर्जुन, अपने पिछले जन्मों में प्राप्त योग के ज्ञान को पुनः समेट कर, वे सफल होने का पुनः प्रयास करते हैं|
अपने पिछले जीवन के अभ्यास के कारण, हुए स्वत: ही योग की प्रक्रिया के प्रति आकर्षित हो जाते हैं| एवं, इस योग की प्रक्रिया पर केवल जिज्ञासा करके, वे बड़ी आसानी से वेद के अनुष्ठानों से परे स्थित हो जाते हैं|
सच्ची निष्ठा से प्रयत्न करने के बाद योगी सभी संदूषणों से शुद्ध हो जाता है और अनेकानेक जन्मों के अभ्यास के पश्चात सिद्ध होकर परम गंतव्य को प्राप्त करता है|
ऐसा योगी, एक तपस्वी(जो घोर तपस्या करता है), एक ज्ञानी(जो बौद्धिक खोज द्वारा पूर्णता को प्राप्त करने की कोशिश करता है), और एक कर्मी(जो वैदिक अनुष्ठानों द्वारा मोक्ष पाने की कोशिश करता है) से भी श्रेष्ठ होता है| यही मेरा निष्कर्ष है, हे अर्जुन- इसलिए तुम एक योगी बनो!
मैं भक्ति-योगी को सभी योगो में से सर्वश्रेष्ठ मानता हूं, जो मुझ में दृढ़ रहते हैं, जो मुझ पर ध्यान करते हैं और दृढ़ श्रद्धा से मेरी पूजा करते हैं!
ॐ तत्सत- श्रीमद् भागवत गीता उपनिषद में श्री कृष्ण और अर्जुन के संवाद से लिए गए ध्यान योग नमक छठे अध्याय की यहां पर समाप्ति होती है|
आपका कोटि-कोटि धन्यवाद, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण ||
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