हेलो दोस्तों, अब तक हमने अध्याय एक सैन्य दर्शन तथा अध्याय दो सांख्य योग को देखा, और अब हम Bhagwat Gita Updesh by Shri Krishna (गीता उपदेश) Eternal powerful Gyan part-3 में अध्याय 3 कर्म योग के बारे में पढ़ेंगे, जो की प्रभु श्री कृष्ण गीता में कुछ इस प्रकार कहें-
मैं हूं, आपका दोस्त, विशाल यादव, और प्रभु से विनती करता हूं कि आपका जीवन खुशियों के रंगों से भर जाए और जीवन में एक नई दिशा की ओर अग्रसर हो, प्रभु सदैव अपनी कृपा आप सब पर बनाए रखें, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण,
अध्याय 3 (जय श्री कृष्ण)
कर्म योग-
अर्जुन के वचन-
हे जनार्दन, हे केशव, यदि आपका अभिप्राय में ज्ञानयोग कर्म योग से बेहतर है, तो फिर ऐसे हिंसात्मक कार्य में आप मुझे क्यों संलग्न कर रहे हैं? आपके वचन मुझे परस्पर विरोधी लग रहे हैं और अब मेरा मन भ्रमित हो गया है ।इसलिए, कृपया मुझे यह बताएं कि कौन सा पद मेरे लिए उत्तम है?
श्री परमात्मा प्रभु श्री कृष्ण के वचन-
भगवान श्री कृष्ण ने कहा- हे दोष रहित, मैं इस लोक में पाए जाने वाले दो प्रकार के मार्गों को बताया है- अनुभव आश्रित दार्शनिकों के लिए ज्ञान का मार्ग, और कर्म में आसक्त लोगों के लिए कर्म का मार्ग । केवल कर्म से निवृत होकर कोई भी निष्कर्म की दिव्य स्थिति प्राप्त नहीं कर सकता, और केवल परित्याग के माध्यम से सिद्धि प्राप्त नहीं होती ।
कोई एक पल के लिए भी कम से निवृत नहीं हो सकता । वास्तव में त्रिगुणों के प्रभाव से सभी जीव कर्म करने के लिए विवश हो जाते हैं । जो बाहर से इंद्रियों का निग्रह करें किंतु मानसिक स्तर पर विषय वस्तुओं का चिंतन करें, वह पाखंडी कहलाता है । जब की, हे अर्जुन, जो व्यक्ति अपने मन के द्वारा इंद्रियों को वश में रखें और उन्हें बिना किसी लगाव के कर्म योग में नियुक्त करें, वह श्रेष्ठतर है ।
तुम्हें अपने निर्धारित कर्मों को करना चाहिए, क्योंकि कर्म करना, निष्क्रिय रहने से बेहतर है । कर्म किए बिना तुम अपना अस्तित्व भी कायम नहीं रख सकते । सारे कर्मों को यज्ञ द्वारा विष्णु (परमात्मा) पर समर्पित करना चाहिए । अन्यथा सभी कम हमें इस भौतिक जगत से बांधते हैं । एक कुंती पुत्र केवल ईश्वर के लिए कम करो और इस प्रकार तुम सारे बंधनों से मुक्त हो जाओ ।
सृष्टि के आरंभ में, ब्रह्मा जी ने यज्ञविधीयो के साथ-साथ मानव जाति की रचना की, और फिर कहा, ” इस यज्ञ के माध्यम से तुम्हारा कल्याण हो । तुम्हारी सभी कामनाओं को यह पूरी करें” । यज्ञों से तृप्त होकर देवताएं तुम्हें भी तृप्त करेंगे । इस प्रकार परस्पर सद्भावना से तुम परम लाभ प्राप्त करोगे । तुम्हारे यज्ञ कार्यों से संतुष्ट होकर देवताएं तुम्हारे जीवन की सभी आवश्यकताएं प्रदान करेंगे । परंतु यदि देवताओं को अर्पित किए बिना कोई इस दान का उपभोग करता है तो वह चोर कहलाता है ।
यज्ञ में अर्पित खाद्य के अवशेषों का ग्रहण करके संत सभी तरह के पापों से मुक्त हो जाते हैं । परंतु जो मात्र अपने स्वास्थ्य के लिए भोजन पकाते हैं वह केवल अपने भौतिक बंधन को बनाए रखते हैं । सभी जीव जंतु आहार पर निर्भर होते हैं, और आहार वर्ष से उत्पन्न होता है । वर्षा यज्ञ कार्यों से उत्पन्न होती है, और यज्ञ कर्म से पैदा होता है ।
यह जानू की निर्धारित कर्म वेदों से प्राप्त होते हैं, और वेद अविनाशी परम सत्य से उद्भव होते हैं । इस प्रकार, सर्वभूत परम-सत्य नित्य यज्ञ कार्यों में विद्यमान होता है ।
हे पार्थ, जो इस संसार में रहकर इस वैदिक व्यवस्था को अस्वीकार करता है, वह केवल इंद्रियों के सुख के लिए एक अधर्मी जीवन बिताता है- इस तरह वह अपना जीवन व्यर्थ कर देता है । परंतु, जो व्यक्ति स्वयं में ही सुख का अनुभव करता है, उसका कोई कर्तव्य नहीं होता है । व स्वयं में ही सुखी रहता है, और अंतर्रत: पूर्ण रूप से आत्म संतुष्ट होता है । इस संसार में वह ना तो कर्म करने से, ना कर्म न करने से लाभ प्राप्त करता है । ना दूसरों पर निर्भर होता है ।
इसलिए, फल के प्रति अनासक्त रहकर अपने निर्धारित कर्मों को अच्छी तरह से करते जो । अनासक्त रहकर कर्म करने से व्यक्ति परम सत्य प्राप्त करता है ।
इतने समय में, जनक आदि जैसे राजाओं ने अपने निर्धारित कर्मों के निष्पादन द्वारा परम सिद्धि प्राप्त की । जन सामान्य के लिए एक उचित आदर्श स्थापित करने के लिए तुम्हें भी इस प्रकार उचित आचरण करना होगा । जिस तरह एक महान व्यक्ति आचरण करता है सामान्य जनता भी उसी तरह का अनुसरण करती है । तदनुसार, अपने कार्यों से जो आदर्श व प्रस्तुत करता है, अन्य लोग भी उसी के पदचिह्ननो पर उसका अनुसरण करते हैं ।
हे पार्थ, तीनों लोकों में मेरा कोई कर्तव्य नहीं है । मुझ में कोई अभाव नहीं है और ना मैं कुछ पाना चाहता हूं- फिर भी मैं कार्य नियुक्त रहता हूं । यदि मैं कार्य छोड़ करना छोड़ दूं तो सब लोग मेरा ही पथ अपनाएंगे और अपने निर्धारित कर्मों की अवहेलना करेंगे ।
यदि मैं उचित आचार व्यवहार ना करूं, तो सामान्य जनता का सर्वनाश हो जाएगा और अवांछित संतानों का मैं जिम्मेदार बन जाऊंगा । इस तरह मैं स्वयं प्रजा के नाश का कारण बन जाऊंगा ।
हे भारतवंशी अर्जुन, जिस तरह अज्ञानी अपने कर्मों में आसक्त होते हैं, उस तरह बुद्धिमान व्यक्ति को सबके कल्याण के लिए अपना कर्म करना चाहिए, किंतु अनासक्त रहकर । बुद्धिमान लोगों को कभी स्वार्थी कर्मों में आसक्त अज्ञानियों के मन को अशांत नहीं करना चाहिए । बल्कि, बुद्धिमानों को अनासक्त रहकर अपने कर्तव्यों का पूरी तरह से पालन करना चाहिए, और अज्ञानियों को प्रोत्साहन देकर उन्हें पुण्य कर्मों में संलग्न करना चाहिए ।
प्रकृति के त्रिगुण ही सभी कार्यों के कर्ता है । परंतु जो स्वयं के शारीरिक मिथ्याबोध से मोहित होते हैं, वे सोचते हैं कि, ” कर्ता मैं हूं ।” और फिर भी, हे महाबाहु, कर्म और प्राकृतिक गुना के सत्य का जानकार, यह जानता है कि यह सब केवल त्रिगुणों की परस्पर अंतः क्रिया है, इस कारण वह अनासक्त रहता है ।
त्रिगुणों के प्रभाव से विमुढ लोग, उन्हें गुणों से संचालित लौकिक क्रियाओं में डूबे रहते हैं । बुद्धिमान को कभी भी इन अज्ञानियों को अशांत नहीं करना चाहिए । मुझ पर सभी कर्मों को संपूर्ण रूप से समर्पित कर, अपनी प्रज्ञा को पूरी तरह से अपनी आत्मा में स्थापित कर, बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी प्रभुत्व की भावना के, और खेद-रहित होकर- युद्ध करो!
जो मेरे इन उपदेशों का श्रद्धापूर्वक अनुसरण, ईर्ष्या रहित होकर करें, वह कर्म बंधन से मुक्त हो जाएंगे । परंतु, यह जान लो की जो ईर्ष्या के कारण मेरे उपदेशों का अनुसरण नहीं करते, वे समस्त ज्ञान से वंचित है । जीवन का लक्ष्य उनकी आंखों से ओझल हो चुका है, और वे बुद्धिहीन है ।
एक प्रज्ञवन व्यक्ति भी अपने स्वभाव के अनुसार ही बर्ताव करता है । जब सभी जीव अपने स्वभाव के अनुसार ही आचरण करते हैं, तो निग्रह से क्या संपन्न होता है?
इंद्रिय, विषय वस्तुओं से आकर्षित व विकर्षित होती है । किंतु व्यक्तियों को ऐसे आकर्षक व विकर्षण के वश में नहीं होना चाहिए । अपने ही निर्धारित धर्म को त्रुटिपूर्ण ढंग से करना, किसी और के धर्म के उत्तम निष्पादन से श्रेष्ठतर है । अपने ही धर्म को निभाते मर जाना अच्छा है, क्योंकि दूसरों के धर्म को करना संकटपूर्ण है ।
अर्जुन के वचन-
अर्जुन ने पूछा-हे कृष्ण, हे प्रभु, वह क्या है जो व्यक्ति को अपनी इच्छा के विरुद्ध, जैसे कि जबरन, पाप करने पर उत्तेजित करता है ।
भगवान श्री कृष्ण के वचन-
भगवान श्री कृष्ण बोले- वह काम है, जो रजोगुण से प्रकट होने वाले क्रोध में परिवर्तित हो जाता है । यह जनों की यह काम बिल्कुल ही अतोषणीय है और अत्यंत अमंगलकारी है । इस संसार का यही सबसे बड़ा शत्रु है । जिस तरह आग को धुएं ढकता है, दर्पण को धूल ढकता है, और जिस तरह भ्रूण को गर्भाशय ढकता है, इस तरह काम जीव की चेतना को ढकता है ।
हे कुंती पुत्र, सब कुछ भस्म कर देने वाले प्रचंड अग्नि के समान, शाश्वत अभिशाप के रूप में यह काम, एक प्रज्ञावान व्यक्ति के विवेक को भी ढक सकता है । ऐसा कहा जाता है कि इस वैरी के अधिष्ठान इंद्रियां, मन एवं बुद्धि हैैं । व्यक्ति के ज्ञान को आवृत्त कर, देहबद्ध जीवात्मा को भ्रमित कर देता है ।
अतः हे भरतश्रेष्ठ, तुम्हें पहले अपने इंद्रियों को वश में करना होगा और काम को मिटाना होगा, जो समस्त अधार्मिकता का मूर्त रूप है और जो ज्ञान व विज्ञान का नाशक है|
प्रज्ञावान कहते हैं की विषय वस्तुओं से इंद्रिया श्रेष्ठतर है, मन इंद्रियों से श्रेष्ठतर है, बुद्धि मन से श्रेष्ठतर है, और बुद्धि से श्रेष्ठतर है आत्मा|
हे महाबाहु अर्जुन, आत्मा को बुद्धि से श्रेष्ठतर समझकर, विशुद्ध चेतना से मन को स्थिर करो, और इस तरह काम रूपी इस अदम्य शत्रु को परास्त करो |
ॐ तत्सत– श्रीमद् भागवत गीता उपनिषद में श्री कृष्ण और अर्जुन के संवाद से लिए गए कर्म योग नामक तृतीय अध्याय कि यहां पर समाप्ति होती है|
आपका कोटि-कोटि धन्यवाद|
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