Bhagavad Gita Updesh by Shri Krishna– कर्म किसे कहते हैं? अकर्म किसे कहते हैं?- यह विषय बुद्धिमानों को भी उलझन में डाल सकता है| इसलिए, मैं स्वयं तुम्हें समझाता हूं कि कर्म किसे कहते हैं, जिसे समझ कर तुम अशुभ से विमुक्त हो जाओगे|
जय श्री कृष्ण, मैं हूं विशाल यादव आपका दोस्त, और मैं गीता उपदेश के अध्याय 4 के श्लोको का सार तत्व यहां पर लिख रहा हूं, और आशा करता हूं की यह गीता ज्ञान जो प्रभु श्री कृष्ण द्वारा कही गई है, आपको जीवन में नई ऊंचाइयां और सफलताओं को पाने में मार्गदर्शन करेगी जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण|
अध्याय 4
ज्ञान योग (Bhagavad Gita Updesh by Shri Krishna)
भगवान श्री कृष्ण के वचन-
भगवान श्री कृष्ण ने कहा- मैंने सूर्य देव विवस्वान को यह योग विद्या प्रदान की थी| उसके बाद विवस्वान ने इस ज्ञान को ववैस्वत मनु को बताया, और मनु ने इक्ष्वाकु को इसी ज्ञान की शिक्षा दी| इस प्रकार, ही शत्रु विजई अर्जुन, राजर्शियों ने इस ज्ञान को गुरु शिष्य परंपरा की पद्धति द्वारा प्राप्त की| परंतु कालांतर में यह योग विद्या विलुप्त हो गया|
पुणे इस प्राचीन योग विज्ञान को मैं तुम्हें दे रहा हूं| क्योंकि तुम मेरे प्रिय मित्र व भक्त हो, तुम उसे दिव्य रहस्य को समझ पाओगे जिसकी व्याख्या मैं तुमसे करने जा रहा हूं|
अर्जुन के वचन-
अर्जुन ने कहा- आपका जन्म तो हाल ही में हुआ है जबकि सूर्य देव बहुत पहले प्रकट हुए थे| तो मैं या कैसे समझूं कि आपने ही उन्हें योग-विज्ञान की शिक्षा दी थी?
भगवान श्री कृष्ण के वचन-
भगवान श्री कृष्ण ने कहा- ही शत्रु विध्वंसक अर्जुन, हम और तुम कई जन्मों से गुजर चुके हैं| मुझे उन सभी जन्मों का स्मरण है, परंतु तुम्हें नहीं|
हालांकि मैं आजाद हूं और मेरा स्वरूप अविनाशी है, और मैं सर्वेश्वर भी हूं, तब भी अपने भौतिक प्रकृति को अपने अधीन रखकर मैं स्वयं अपनी शक्ति से प्रकट होता हूं|
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
हे भारतवंशी, जब-जब धर्म का पतन होता है और धर्म का उत्थान होता है, तब तब मैं स्वयं प्रकट होता हूं|
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥
आत्माओं की रक्षा और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए, एवं धर्म की स्थापना के लिए मैं प्रत्येक युग में आता हूं|
जो मेरे दिव्या जनों और कर्मों को समझते हैं उनके देहांत के पश्चात पुनर्जन्म नहीं होता| हे अर्जुन, वे मेरे पास आते हैं|
सांसारिक बंधनों, भाई एवं क्रोध से मुक्त होकर, तथा मेरी चिंतन में निमग्न रहकर अनेक लोगों ने मेरी शरण ली है, तपस्या के ज्ञान से विशुद्ध हुए हैं, और इस प्रकार मेरे प्रति दिव्या भाव को प्राप्त कर चुके हैं| जिस भाव से लोग मेरे प्रति आत्म समर्पण करते हैं, तदनुसार मैं उन्हें प्रतिफल प्रदान करता हूं| हे पार्थ, सब लोग मेरे ही पद का अनुसरण करते हैं|
इस संसार में, लौकिक सफलता की कामना करने वाले देवी देवताओं की पूजा करते हैं, क्योंकि मानव समाज में ऐसी पूजा पाठ से सफलता शीघ्र ही प्राप्त हो जाती है|
मैंने ही कर सामाजिक वर्णों की सृष्टि की है जिन्हें प्राकृतिक गुणो एवं के प्रभावों एवं उनके अनुरूपी कर्मों द्वारा निर्धारित किया जाता है| हालांकि इस व्यवस्था को मैंने ही बनाया है, यह जानू कि वास्तव में, मैं ना तो कर्ता हूं ना मैं परिवर्तनीय हूं|
किसी भी कर्म का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं होता, और ना ही मैं भौतिक कर्मों के फलों की कामना करता हूं| जो इस बात को समझता है वह कभी भी कम से नहीं बधता। इस बात को जानते हुए, प्राचीन काल में मोक्ष की कामना करने वाले भी कर्म किया करते थे| इसलिए तुम्हें भी उसी तरह कर्म के पद का अनुसरण करना चाहिए जिस तरह लोग पहले किया करते थे|
कर्म किसे कहते हैं? अकर्म किसे कहते हैं?- यह विषय बुद्धिमानों को भी उलझन में डाल सकता है| इसलिए, मैं स्वयं तुम्हें समझाता हूं कि कर्म किसे कहते हैं, जिसे समझ कर तुम अशुभ से विमुक्त हो जाओगे|
हमें यह समझना चाहिए कि निर्धारित कर्म क्या है, विकर्म क्या है, और कर्म का त्याग(अकर्म) किसे कहते हैं| कर्म के पथ को समझना अत्यंत कठिन है|
जो कर्म में अकर्मक देख सकता है एवं अकर्मक में कर्म देख सकता है वह व्यक्ति मनुष्यों में अवश्य ही बुद्धिमान कहलाता है| सभी तरह के कर्मों को करते हुए भी वह निसंदेह एक योगी है| जिसका प्रत्येक कर्म स्वार्थी कामनाओं से मुक्त है और जो अपने सारे कर्मों को ज्ञान की अग्नि में जला दें, विद्वान ऐसे व्यक्ति को बुद्धिमान कहते हैं|
ऐसा व्यक्ति जिसने अपने कर्मों के फलों को भोगने की कामना त्याग दी है, जो दूसरों पर निर्भर नहीं होता, और जो सदा तृप्त रहता है, वैसा व्यक्ति कर्म में नियुक्त होते हुए भी दरअसल कोई कर्म नहीं करता|
जो कामना रहित है, मन व शरीर को जो नियंत्रित रखें, जिसमे स्वत्वात्मकता नहीं है, ऐसा व्यक्ति कभी भी किसी कर्म का दोषी नहीं होता, हालांकि वह शरीर के रखरखाव के लिए कर्म अवश्य करता है| जो व्यक्ति अपने आप आने वाले लाभों से संतुष्ट हैं, द्विविधता से परे है, ईर्ष्या रहित है, एवं सफलता और विफलता दोनों में एक समान है, ऐसा व्यक्ति कर्म के बंधन में नहीं बनता, भले ही वह कर्म कार्य में प्रवृत्त क्यों ना हो|
जो व्यक्ति अनासक्त रहे, मुक्त रहे, ज्ञान में प्रतिष्ठित रहे, एवं केवल समर्पण के भाव से कार्य करें, उसे व्यक्ति के सारे कर्म फल विलुप्त हो जाते हैं|
यज्ञ में उपयोग किए जाने वाले सामग्रियां परम तत्व हैं, यज्ञ की पवित्र अग्नि परम तत्व है एवं यज्ञ में अर्पण किए गए पदार्थ भी परम तत्व है, जिसका मन सदैव परम तत्व के विचार में निमग्न रहता है उसे परम तत्व प्राप्त होता है|
कुछ योगी देवी देवताओं के लिए यज्ञ करते हैं, तो कुछ परम तत्व की आने में स्वयं की आहुति देते हैं|
कुछ योगी श्रवण, दृष्टि, स्पर्शन, महक, और अश्वर्धन के इंद्रियों को आत्म संयम की अग्नि में आए होती देते हैं, तो कुछ, विषय वस्तुओं को, जैसे की ध्वनि, रूप, स्वाद, स्पर्श, और गंध को इंद्रियों के अग्नि में आहुति देते हैं| कुछ योगी इंद्रियों एवं प्राण वायुओ के सारे प्रकार्यों को ज्ञान से प्रज्वलित आत्म संयम की अग्नि में आहुति देते हैं|
संपत्ति की आहुति तपस में योग की साधना में देते हैं, तो अन्य, कठोर व्रत स्वीकार करके, वेदों के अध्ययन द्वारा, पूरी तरह ज्ञान के माध्यम से स्वयं को समर्पित करते हैं| कुछ योगी अतः श्वसन में देखकर अपने प्राण वायुओ को नियंत्रित करते हैं, और इस प्रकार में दोनों सांसों का निग्रह करते हैं| तो कुछ अन्य योगी अपने प्राण-वायुओ की आहुति अपने आहार के नियंत्रण में देते हैं|
यह सभी योगी यज्ञ के सिद्धांतों से सुपरिचित हैं| यज्ञ कार्यों द्वारा इन्होंने अपने आप को कल्मष-रहित बना दिया है| मात्र यज्ञ के अवशिष्टों को स्वीकार करके वे तृप्त रहते हैं और इस तरह में सनातन परब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं| हे कुरुश्रेष, जो व्यक्ति कभी यज्ञ नहीं करता, उसे अगले जन्म में तो क्या इस जन्म में भी लौकिक सुख प्राप्त नहीं होता|
इस तरह अनेक विभिन्न प्रकार के यज्ञों को वेदों में समझाया गया है| तुम्हें यह समझना चाहिए कि सभी प्रकार के यज्ञ कर्म से ही जन्म लेते हैं, और इस बात को जानकर तुम भी मुक्त हो जाओगे|
हे शत्रुविजयी, ज्ञान से जुड़ा हुआ यज्ञ, भौतिक द्रव्यों के यज्ञ से ऊंचा होता है| हे पार्थ, ज्ञान में ही समस्त कर्मों का पूरी तरह से समापन होता है|
अब एक ऐसे आत्मवित व्यक्ति के पास जाकर इस ज्ञान को समझने का प्रयास करो, जिन्होंने परम सत्य के दर्शन किए हैं| नम्रता से उनसे प्रश्न पूछो, और उनकी सेवा करो| वे तत्वदर्शी संत तुम्हें ज्ञान देंगे और इस पावन पथ का अनुसरण करने के लिए तुम्हें दीक्षा प्रदान करेंगे|
है पांडूपुत्र, इस ज्ञान को समझकर तुम कभी भी मोहित नहीं होंगे| इस ज्ञान के माध्यम से तुम सभी प्राणियों का आध्यात्मिक स्वभाव जान पाओगे और सभी को मुझ में ही स्थित देखोगे| भले ही तुम महा पापी क्यों ना हो, ज्ञान के नव पर सवार होकर तुम इस व्यसनो के सागर को पार कर सकोगे|
हे अर्जुन, जिस प्रकार एक धधकती अग्नि काठ को जलाकर राख कर देती है, इस प्रकार ज्ञान की अग्नि सभी कर्मों को भस्म कर देती है| समस्त विश्व में ज्ञान से अधिक पवित्र और कुछ नहीं| यथाक्रम, उचित समय पर, योग में संपन्न व्यक्ति अपने आप इस बात को समझ जाता है|
जो श्रद्धावान है और अपने इंद्रियों को सीमित रखने में तत्पर है, वे इस ज्ञान को तुरंत समझ जाते हैं, और इस तरह में परम शांति प्राप्त करते हैं|
जो अज्ञानी है, श्रद्धाहीन हैैं और संशयपूर्ण है, उनका विनाश निश्चित है| ऐसे श्रद्वाहीन लोग, इस जन्म में तो क्या, अगले जन्म में भी सुख प्राप्त नहीं कर सकते|
है धनंजय, जिसने योग की प्रक्रिया में कर्म कार्य का त्याग किया है, उसे कर्म का बंधन नहीं होता| ज्ञान के माध्यम से उसकी शंकाएं दूर हो चुकी होती हैं, और इस प्रकार उसने आत्म-साक्षात्कार प्राप्त होता है|
अतः, हे भारत, ज्ञान की तलवार से, अपने हृदय स्थित आज्ञा से उत्पन्न हुए इन सशंयो को काटो| योग की प्रक्रिया का आश्रय लेकर उठो और युद्ध करो!
ॐ तत्सत- श्रीमद् भागवत गीता उपनिषद में श्री कृष्ण और अर्जुन के संवाद से लिए गए ज्ञान योग नामक चौथा अध्याय का यहां पर समाप्ति होती है|
आपका कोटि-कोटि धन्यवाद!
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