Bhagavad Gita Updesh श्रद्धात्रय विभाग योग – मन की शांति, सौम्यता, मौन, आत्म-संयम, एवं हृदय की निर्मलता को मन की तपस्या कहते हैं |
जय श्री कृष्ण, मैं हूं विशाल यादव, आपका दोस्त, और मैं गीता उपदेश के अध्याय 17 के श्लोको का सार तत्व यहां पर लिख रहा हूं, और आशा करता हूं की यह गीता ज्ञान जो प्रभु श्री कृष्ण द्वारा कही गई है, आपको जीवन में नई ऊंचाइयां और सफलताओं को पाने में मार्गदर्शन करेगी | जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण |
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श्रद्धात्रय विभाग योग
अर्जुन की वचन-
हे कृष्ण, जो लोग श्रद्धा से आराधना करते हैं किंतु वेदों के नियमों का पालन नहीं करते, उनका क्या स्थान है ? इस तरह की उपासना को किस प्राकृतिक गुण में समझा जाता है ? सत्त्वगुण में, रजोगुण में या तमोगुण में?
भगवान श्री कृष्ण के वचन -
देहधारी जीवात्माओं की श्रद्धा तीन प्रकार की होती है – सात्विक, राजसिक, और तामसिक | पिछले जन्मों से प्राप्त हुए संस्कारों के अनुसार जीवात्मा में उस प्रकार की श्रद्धा प्रकाशित होती है इस विषय पर और सुनो |
हे भारत, अपनी प्रज्ञा के अनुसार, प्रत्येक जीवात्मा एक विशिष्ट प्रकार की श्रद्धा को विकसित करती है | वास्तव में व्यक्ति की श्रद्धा ही उसकी पहचान है |
सात्विक लोग देवी देवताओं की उपासना करते हैं; राजसिक लोग यक्ष-राक्षसों की उपासना करते हैं, और जो तामसिक हैं वह भूत-प्रेतो की पूजा करते हैं |
अज्ञानी लोग, घमंड एवं अहमभाव के कारण ऐसी कठोर तपस्याएं करते हैं जिनका वेदों में कोई आधार नहीं पाया जाता | काम, महत्वाकांक्षा और सत्ता की लालच से प्रेरित होकर वे अपने शरीर को ही पीड़ा पहुंचाते हैं, और क्योंकि मैं उनके शरीर के भीतर स्थित हूं, इस प्रकार से वे मुझे भी पीड़ा पहुंचाते हैं | यह जानों की ऐसे व्यक्ति आसुरी स्वभाव के होते हैं |
लोगों का पसंदीदा आहार और साथ-साथ यज्ञ, तप एवं दान की विधियां भी तीन प्रकार की होती हैं | अब इनके बीच में जो अंतर है, उन्हें सुनो |
जो आहार आयु, सत्त्व, बल, स्वास्थ्य, प्रसन्नता एवं तृप्ति को बढ़ाए, जो रसभरा, वसायुक्त, पौष्टिक एवं आकर्षक है, ऐसा आहार सात्विक लोगों के लिए अत्यंत ही प्रिय है |
जो आहार बहुत कड़वा, खट्टा, नमकीन, मसालेदार, तीखा या बहुत रुखा-सुखा हो, और जो शरीर में जलन पैदा करे, ऐसा आहार दर्द, शोक एवं रोग उत्पन्न करता है | ऐसा आहार राजसिक लोगों के लिए अत्यंत ही प्रिय है |
जो आहार बासी, नीरस, बदबूदार, सड़ा हुआ, दूसरों से फेंका हुआ, और जो यज्ञ में आहुति देने के अयोग्य है, ऐसा आहार तामसिक लोगों के लिए अत्यंत ही प्रिय है |
जो यज्ञ निजी लाभ की कामना किए बिना स्वास्थ्य रहित लोगों द्वारा वैदिक विधियो के अनुसार दृढ़ संकल्प से किए जाते हैं, वे यज्ञ सत्त्वगुण में होते हैं |
परंतु, हे भरतश्रेष्ठ, जो यज्ञ अभिमान और स्वार्थ से किए जाते हैं उन्हें रजोगुण में समझना चाहिए |
वे यज्ञ जिनमें वैदिक विधियो का पालन नहीं होता, जिनमें अन्नदान नहीं दिया जाता, जिनमें उचित मंत्रों का उच्चारण नहीं किया जाता, और जिनमें ब्राह्मणों को दान नहीं दिया जाता – ऐसे यज्ञ श्रद्धा हैं होते हैं और इस तरह वे तमोगुण में होते हैं |
भगवान, ब्राह्मण, गुरु एवं प्रज्ञ मनीषियो की पूजा करना, तथा स्वच्छता, निष्कपटता, ब्रह्मचर्य, एवं अहिंसा का पालन करना समुचित शारीरिक तपस्या है |
सत्य वचन उस प्रकार व्यक्त करना जिससे कि सुनने वाले उत्तेजित न हो, जो सुनने में सुखद एवं हितकारी हो, और वेदपाठ करना – इन्हें मौखिक तपस्या कहते हैं |
मन की शांति, सौम्यता, मौन, आत्म-संयम, एवं हृदय की निर्मलता को मन की तपस्या कहते हैं |
इन तीन तरह की तपस्याओं को जब निष्ठावान, नि:स्वार्थ व्यक्ति दृढ़ श्रद्धा के साथ अपनाते हैं, तब उन तपस्याओं को सत्व गुण में कहा जाता है |
प्रतिष्ठा, नाम एवं यश कमाने के लिए अभिमान के साथ किए जाने वाली तपस्याओं को रजोगुण में कहा जाता है | ऐसी तपस्याओं के फल अस्थिर और अशाश्वत होते हैं |
मूर्खता से किए जाने वाली तपस्याएं जो न केवल स्वयं को बल्कि दूसरों को भी पीड़ा पहुंचाए, ऐसी तपस्याओं को तमोगुण में कहा जाता है |
जो दान प्रतिफल की आशा किए बिना, उचित जगह पर, शुभ काल में, योग्य प्राप्तकर्ता को इस तरह के मनोभाव से दिया जाता है कि इस दान को दिया जाना ही चाहिए, वह दान सत्त्वगुण में होता है |
किंतु, जो दान को अनिक्षापूर्वक, प्रत्युपकार की आशा एवं प्रतिफल की स्वार्थी आकांक्षा सहित दिया जाता है, वह दान रजोगुण में होता है |
जिस दान को अनादर से, अनुचित समय एवं अनुचित जगह पर, एक अयोग्य प्राप्तकर्ता को दिया जाता है, उस दान को तमोगुण में कहा जाता है |
वेदों में बताया गया है कि “ॐ तत् सत्” के तीन शब्द परम-सत्य को दर्शाते हैं |प्राचीन समय में, ब्राह्मण, वेद और यज्ञ की विधियां इन तीन शब्दों द्वारा उद्भव हुए थे |
इसलिए, जो परम-सत्य की खोज करते हैं वे यज्ञ के आरंभ में सदैव ॐ (ओम) शब्द का उच्चारण करते हैं, दान देते हैं, तपस्या करते हैं, एवं वेदों में निर्धारित अन्य कार्यों का भी निर्वहन करते हैं |
मोक्ष की इच्छा करने वाले “तत्” शब्द के उच्चारण द्वारा, प्रतिफल भोगने की स्वार्थी इच्छा को त्याग करके, तरह-तरह के तपस्या, एवं दान-धर्म का पालन करते हैं |
“सत्” शब्द परम-सत्य के स्वभाव को एवं परम-सत्य की जिज्ञासा करने वाले साधुओं के स्वभाव को सूचित करता है | इसलिए, हे पार्थ, सभी सत्कार्यों के अंतर्गत “सत्” शब्द का उच्चारण किया जाता है |
यज्ञ, तपस्या एवं दान-कार्य के निर्वहन में स्थिरता को “सत्” कहा जाता है | परमेश्वर के प्रति किए जाने वाले किसी भी कार्य को “सत्” कहा जाता है |
हे पार्थ, किसी भी यज्ञ, तपस्या, दान-धर्म या किसी भी क्रिया को यदि अश्रद्धापूर्वक किया जाए, तो वह “असत्” (मिथ्या) कहलाता है | इस प्रकार के कार्य, इस जन्म में तो क्या अगले जन्म में भी कोई मंगलदायक प्रतिफल उत्पन्न नहीं करते |
ॐ तत् सत् – श्रीमद् भागवत गीता उपनिषद में श्री कृष्ण और अर्जुन के संवाद से लिए गए श्रद्धात्रय विभाग योग नामक सत्रहवेें अध्याय की यहां पर समाप्ति होती है|
आपका कोटि-कोटि धन्यवाद, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण ||
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