Bhagavad Gita Updesh – मैं आपके रूप को सर्वत्र देख रहा हूं, जो अनेकों मुकूटों, गदाओं, तथा चक्र से विभूषित है, और सूर्य के अपार, प्रकाश की भांति आपके सभी ओर से व्यापक तेज दीप्तिमान है, जिसके कारण आपको देख पाना कठिन है|
जय श्री कृष्ण, मैं हूं विशाल यादव, आपका दोस्त, और मैं गीता उपदेश के अध्याय 11 के श्लोको का सार तत्व यहां पर लिख रहा हूं, और आशा करता हूं की यह गीता ज्ञान जो प्रभु श्री कृष्ण द्वारा कही गई है, आपको जीवन में नई ऊंचाइयां और सफलताओं को पाने में मार्गदर्शन करेगी| जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण|
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Toggleअध्याय 11
विश्वरूपदर्शन योग
अर्जुन के वचन-
अपनी अनुकंपा से, अपने दिव्य स्वभाव के अत्यंत गह्य आध्यात्मिक रहस्य को बताया, जिसे सुनकर अब मेरा मोह दूर हो गया है|
है कमल-नयन कृष्ण, मैंने आपसे सभी जीवों की उत्पत्ति एवं विनाश का विस्तृत वर्णन सुना, साथ ही साथ आपकी अविनाशी महिमा को भी सुना|
हे परमेश्वर! जो आपने अपने बारे में बताया है वह परम सत्य है| है पुरुषोत्तम, अब मैं आपके वैभवशाली रूप के दर्शन की इच्छा करता हूं| है योगेश्वर! यदि आपको लगता है कि यह संभव है, तो कृपया मुझे अपना अव्यय स्वरूप दिखाएं|
भगवान श्री कृष्ण के वचन-
हे पार्थ, अब तुम मेरे विविध रंगों व आकृतियां वाले असंख्य दिव्य रूपों को देखो|
हे भारत, देखो इन आदित्यों, वसुओं, रुद्रो, अश्विनीकुमारो, तथा अन्य देवताओं को| इन विविध अद्भुत रूपों को देखो, जो पहले कभी देखे नहीं गए|
है अज्ञान की निद्रा के विजई अर्जुन! एक ही स्थान पर मेरे इस रूप में पूरे ब्रह्मांड को देखो, जिसमें सभी चर-अचर प्राणी शामिल है, तथा उसके साथ तुम जो भी देखने की इच्छा रखते हो उसे भी देखो|
किंतु तुम मुझे अपनी इन आंखों से नहीं देख सकते| अतः मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि दे रहा हूं| अब मेरे ऐश्वर्य एवं वैभव को देखो |
संजय के वचन-
हे महाराज धृतराष्ट्र, इस प्रकार पार्थ से बात करके, महायोगेश्वर श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपने विश्व रूप का ऐश्वर्य दिखलाया|
श्री कृष्ण ने असंख्य मुखो और असंख्य के नेत्रों वाले अपने रूप को प्रकट किया, जो कई दिव्य आभूषणों से अलंकृत और कई दिव्य अस्त्रों से सुशोभित है था| उनका रूप दिव्यमालाओं और वस्त्रों से अलंकृत और दिव्य सुगंध से अभ्यंजित था| वह सबसे अद्भुत, भव्य, असीमित और सर्वव्यापी था|
यदि आकाश में असंख्य सूर्य एक साथ उदय हो, तो उनका प्रकाश संभवत: परमपुरुष के इस विश्वरूप के तेज के सदृश हो सकता है| उस समय, पांडु पुत्र अर्जुन ने, देवों के देव श्री कृष्ण के विश्वरूप में संपूर्ण जगत को देखा|
इस तरह, विस्मय एवं अभिभूत होते हुए अर्जुन के रोंगटे खड़े हो गए, और उन्होंने अपने हाथ जोड़कर श्री कृष्ण को अपना अभिवादन अर्पित करते हुए कहा|
अर्जुन के वचन-
हे स्वामी, मैं आपके शरीर के भीतर समस्त देवी-देवताओं और अन्य विविध जीव-राशियों को देख रहा हूं| मैं कमल पर आसीन ब्रह्मा जी एवं शिवजी, ऋषियों, एवं सों को देख रहा हूं|
है विश्वेश्वर! मैं असंख्य भुजओं, उदर, मुंह तथा आंखों वाले आपके असीमित रूप को देख रहा हूं| मुझे आपके इस विश्वरूप का कोई आरंभ, मध्य एवं अंत नहीं दिखाई दे रहा है|
मैं आपके रूप को सर्वत्र देख रहा हूं, जो अनेकों मुकूटों, गदाओं, तथा चक्र से विभूषित है, और सूर्य के अपार, प्रकाश की भांति आपके सभी ओर से व्यापक तेज दीप्तिमान है, जिसके कारण आपको देख पाना कठिन है|
आप वेदों द्वारा ज्ञात परम सत्य हैं| आप इस जगत के परम आधार हैं| आप धर्म के अविनाशी रक्षक हैं| आप ही परम पुरुष भगवान हैं, यही मेरा मत है|
मैं देख रहा हूं कि आप आदि, मध्य, तथा अंत से रहित है| आपके पास असीमित शक्ति एवं असंख्य भुजाएं हैं| सूर्य और चंद्रमा आपकी आंखें हैं| आपके मुख से प्रज्वलित अग्नि की भांति निकलते करने से संपूर्ण विश्व झुलस रहा है|
हे महापुरुष, उच्च लोको और पृथ्वी के बीच के अंतरिक्ष सहित सभी दिशाओं में आप पूरी तरह से व्याप्त हो, आपके इस अद्भुत और भयानक रूप को देखकर तीनों लोक भयभीत हैं|
देवतागण आप में प्रवेश कर रहे हैं और अत्यंत भयभीत होकर वे हाथ जोड़ आपकी प्रार्थना कर रहे हैं| महर्षियों तथा सिद्धों के समूह ” कल्याण हो” कहकर चुनिंदा वैदिक स्तोत्र का पाठ करते हुए आपकी स्तुति कर रहे हैं|
रुद्रो, आदित्यों, वसुओं, साध्यों, विश्वदेवों, दोनों अश्वनी कुमार, मारुतो, पित्ररों, गंधण, यक्ष, असुरों तथा सिद्धों सभी आपको देखते विस्मयाकुल हो गए हैं|
हे महाबाहु! आपके इस अनेक मुखो, नेत्रों, भुजाओं, पैरों, पादो, उदरो, तथा अनेक दांतों वाले भयानक विराट स्वरूप को देखकर देवतागण सहित सभी लोक एवं मैं भी व्याकुल हो गया हूं|
हे विष्णु! आकाश का स्पर्श करते आपका रूप, नाना ज्योतिर्मय रंगों से युक्त, उसके विशाल खुले मुखो और विशाल धधकती आंखों सहित देखकर मेरे अंदर कंपकंपी हो रही है, और मैं ना तो अपना मानसिक संतुलन बनाए रख पा रहा हूं, न मैं शांत हो पा रहा हूं|
आपके अनेक मुखो को उनके विकराल दातों सहित, प्रलय अग्नि की भांति प्रज्वलित देखकर मैं दिशा विहीन हो रहा हूं, और अपना धैर्य खो रहा हूं| मुझ पर दया कीजिए, हे देवेश्वर! हे जगदीश्वर!
धृतराष्ट्र के सारे पुत्र, उनके मित्र पक्ष, साथ में भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण एवं हमारी सेना के उत्तम योद्धाओं सहित, सभी आपके भयानक दांतों वाले विकराल मुखो में प्रवेश कर रहे हैं| उनमें से कुछ के सिरों को तो मैं आपके दांतों के बीच चूर-चूर होते देख रहा हूं|
जिस तरह नदियां समुद्र की ओर बहती हैं और अंत में उसमें प्रवेश करती हैं, उसी तरह यह सभी प्रसिद्ध वीर भी आपके प्रज्वलित मुखो में प्रवेश कर रहे हैं|
जिस प्रकार पतंगे अपने विनाश की ओर प्रज्वलित अग्नि में कूद पड़ते हैं, उसी प्रकार सभी लोक आपके मुखो में अपने विनाश की ओर तेजी से घुसे जा रहे हैं|
आप बार-बार होठों को चाटते हैं क्योंकि आप अपने प्रज्वलित मूर्खों से सभी दिशाओं से समस्त लोगों का भक्षण कर रहे हैं| हे विष्णु, आप अपनी तेजस्वी किरणो से संपूर्ण जगत में व्याप्त होकर उसे जलाकर राख कर रहे हैं|
हे देवताओं में श्रेष्ठ, ही भयानक रूप वाले, मुझे बतलाएं कि आप कौन हैं? मैं आपको नमन करता हूं, कृपा करके मुझ पर प्रसन्न हो| हे सभी के उत्पत्ति के कारण, मैं आपको जानना चाहता हूं, क्योंकि मैं आपके लक्ष्य को पूरी तरह से समझ नहीं पा रहा हूं|
भगवान श्री कृष्ण के वचन-
मैं काल हूं, समस्त जगतो में महान विध्वंसक, और मैं यहां समस्त लोगों का विनाश करने के लिए आता हूं| तुम इस युद्ध में भाग नहीं लोगे तो भी युद्ध के मैदान में सामने एकत्रित सभी योद्धा मारे जाएंगे|
अतएव, उठो और यश पाओ! अपने शत्रुओं को जीत कर एक समृद्ध साम्राज्य का भोग करो! हे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर, तुम्हारे सभी शत्रु पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं- तुम केवल एक साधन हो!
द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण और अन्य वीर सैनिक मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं| डरो नहीं – युद्ध करो! तुम निश्चित अपने शत्रुओं पर विजई होगे|
संजय के वचन-
केशव (श्रीकृष्ण) की बातें सुनकर, कांपते हुए अर्जुन ने प्रार्थना में हाथ जोड़कर लड़खड़ाते स्वर में श्री कृष्ण से इस प्रकार कहा|
अर्जुन के वचन-
हे ऋषिकेश, यह उचित ही है की संपूर्ण संसार आपका सानंद गुणगान करे और आपके प्रति आकर्षित हो| किंतु दुष्ट भयभीत होकर सभी दिशाओं में पलायन करते हैं और सिद्धपुरुष आपको नमन करते हैं|
हे महात्मा! आप इस ब्रह्मांड के रचयिता ब्रह्मा से भी अधिक श्रेष्ठ हैं| तो फिर सभी आपको सादर नमस्कार क्यों ना करें? हे अनंत, हे देवेश, है जगननिवास! आप नित्य हैं, अस्तित्वमान और अस्तित्वहीन के परे हैं|
आप आदि देव, सनातन पुरुष तथा इस संपूर्ण ब्रह्मांड के एकमात्र आश्रय हैं| आप ही ज्ञाता हैं और और आप ही जानने योग्य हैं| आप परम आश्रय हैं और आपके अनंत रूप से संपूर्ण ब्रह्मांड व्याप्त है|
आप ही वायुदेव हो, आप ही यमराज हो, आप ही अग्नि देव हो, आप ही वरुण देव हो, आप ही इस सृष्टि के रचयिता एवं सभी के पितामह हो| मैं आपको सहर्स्त्रो बार पुनः पुनः प्रणाम करता हूं|
आपको आगे, पीछे, तथा सभी दिशाओं से मेरा सादर प्रणाम है| ही हसीन शक्ति के स्वामी, आप सर्वव्यापी हैं, अतः आप ही सब कुछ हैं|
मैं आपकी महिमा से अनभिज्ञ था और आपसे सुपरिचित होने के कारण मैंने आपको अज्ञानवश सखा कहकर संबोधित किया| मैंने जो कुछ भी आकस्मिक रूप से आपसे कहा, जैसे की ‘हे कृष्ण, हे यादव, हे मित्र’, और मैं परिहास में या आपके साथ खेलते हुए, या आराम करते हुए, साथ-साथ खाते या बैठे हुए, कभी अकेले में तो कभी दूसरों के समक्ष, जो कुछ आपका अनादर किया है, उसके लिए, हे अचिंत्य, हे अविनाशी, मेरे इन सभी कृतियों के लिए मुझे क्षमा करें|
आप इस ब्रह्मांड के सभी चर तथा अचर प्राणियों के जनक हैं| आप परम पूज्य महान गुरु हैं| तीनों लोकों में ना तो कोई आपके तुल्य हैं, ना ही कोई आपके समान हो सकता है| हे अतुलनीय शक्ति के प्रभु, आपसे बढ़कर कोई कैसे हो सकता है?
इसलिए हे प्रभु, मैं आपको साष्टांग प्रणाम करता हूं और आपसे विनती करता हूं मुझ पर दया करें| हे कृष्ण, कृपया मेरी त्रुटियों को क्षमा करें जैसे एक पिता, मित्र या प्रेमी अपने पुत्र, मित्र या प्रिय को क्षमा कर देते हैं|
पहले कभी ना देखे गए आपके विराट रूप के दर्शन करके मैं हर्षित हो रहा हूं, किंतु मेरा मन साथ ही भयभीत भी हो गया है| अतः हे देवेश, आप कृपा करके अपना नारायण स्वरूप पुन: दिखाएं जो समस्त जगत का आश्रय है|
है विराट रूप! है सहस्रभुज! मैं, आपके मुकुट पहने हुए और अपने हाथों में सुदर्शन चक्र धारण किए हुए चतुर्भुज रूप के दर्शन करना चाहता हूं|
भगवान श्री कृष्ण के वचन-
हे अर्जुन! मैं प्रसन्न होकर अपनी दिव्य शक्ति के बल पर अपने इस तेजोमय, अपरिमित, मौलिक विश्व रूप के दर्शन करवाए हैं| यह रूप पहले कभी किसी ने नहीं देखा|
हे कुरुश्रेष्ठ! इस नश्वर संसार में कोई भी इस रूप को देख नहीं सकता जो मैंने तुम्हारे सामने प्रकट किया है- न तो वेद के अध्ययन से, न ही वैदिक यज्ञ के द्वारा, न अनुष्ठान से, न दान से, न ही कठोर तपस्या के द्वारा|
मेरे इस भयानक रूप को देखकर भयभीत न हो| हाथप्रभ न हो| शांत चित्त होकर अपने इच्छित रूप के दर्शन करो|
संजय के वचन-
इस प्रकार बोलते हुए, वासुदेव श्री कृष्ण ने अपने चतुर्भुज रूप को दिखाया और फिर अपने सुंदर दो भुजाओं वाले रूप में प्रकट होकर भयभीत अर्जुन को शांत किया|
अर्जुन के वचन-
हे जनार्दन! आपके सुंदर मानवी रूप को देखते हुए, मेरा मन शांत हो गया है और अपना आत्मसंयम पुन: प्राप्त कर लिया है|
भगवान श्री कृष्ण के वचन-
तुम मेरे जिस रूप को इस समय देख रहे हो, उसके दर्शन पाना बहुत दुर्लभ है| यहां तक की देवता भी इस रूप के केवल झलक पाने के लिए सदा उत्सुक रहते हैं|
तुम जिस रूप को देख रहे हो, उसे न तो वेद अध्ययन से, न कठिन तपस्या से, न दान से, न यज्ञ व अनुष्ठानों के माध्यम से देखना संभव है|
हे अर्जुन, ही शत्रु विजेता! केवल अनन्य भक्त द्वारा ही पूर्ण रूप में मुझे जाना जा सकता है| भक्ति योग से ही मेरा साक्षात दर्शन किया जा सकता है, मुझे प्राप्त किया जा सकता है|
हे पांडुपुत्र, मेरे भक्त जो मेरी सेवा करते हैं, मुझे सर्वोच्च मानते हैं, सभी भौतिक आसक्तियों का त्याग करते हैं, और जो सभी प्राणियों के लिए द्वेष मुक्त हैं, वह मुझे प्राप्त कर सकते हैं|
ॐ तत्सत- श्रीमद् भागवत गीता उपनिषद में श्री कृष्ण और अर्जुन के संवाद से लिए गए विश्वरूपदर्शन योग नामक ग्यारहवें अध्याय की यहां पर समाप्ति होती है|
आपका कोटि-कोटि धन्यवाद, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण ||
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