Bhagavad Gita Updesh मोक्ष योग – अपने आप को केवल मुझ पर समर्पित करो! डरो मत, क्योंकि निश्चित रूप से मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त करूंगा | मैं तुम्हें इसका वचन देता हूं क्योंकि तुम मुझे बहुत प्रिय हो |
जय श्री कृष्ण, मैं हूं विशाल यादव, आपका दोस्त, और मैं गीता उपदेश के अध्याय 18 के श्लोको का सार तत्व यहां पर लिख रहा हूं, और आशा करता हूं की यह गीता ज्ञान जो प्रभु श्री कृष्ण द्वारा कही गई है, आपको जीवन में नई ऊंचाइयां और सफलताओं को पाने में मार्गदर्शन करेगी | जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण |
Table of Contents
Toggleअध्याय 18
मोक्ष योग
अर्जुन के वचन-
हे महाबाहु, हे ऋषिकेश, हे केशव, मैं संन्यास और त्याग का वास्तविक अर्थ और साथ ही उनके बीच के अंतर को समझना चाहता हूं |
भगवान श्री कृष्ण के वचन -
जो बुद्धिमान होते हैं उन्हें यह अनुभूति (ज्ञान) होती है कि संन्यास का अर्थ है, अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए किए जाने वाले कर्मों का त्याग करना | जबकि त्याग का तात्पर्य है सभी कर्मों का त्याग करना |
कुछ विद्वानों का दावा है कि सभी कर्मों को त्याग देना चाहिए क्योंकि वे स्वाभाविक रूप से ही दोष-युक्त होते हैं | दूसरों का कहना है कि यज्ञ, दान और तपस्या जैसे कर्मों का कभी त्याग नहीं करना चाहिए |
हे भरत वंश के श्रेष्ठ, हे पुरुषव्याघ्र, तीन प्रकार के त्याग के विषय में मेरा निष्कर्ष सुनो |
तीन प्रकार के त्याग – यज्ञ, दान और तपस्या को कभी नहीं छोड़ना चाहिए | यज्ञ, दान और तपस्या मनीषियो को भी शुद्ध करती हैं |
फिर भी, हे पार्थ, इन कर्मों को भी फल की इच्छा के बिना ही किया जाना चाहिए | इस विषय पर नि:संदेह यही मेरा अंतिम निर्णय है |
किसी के लिए भी अपने निर्धारित कर्तव्यों का त्याग करना अनुचित है | मोह के कारण अपने कर्तव्यों का त्याग करना तमोगुण की स्थिति कहलाती है |
जो लोग निर्धारित कर्तव्यों इसलिए त्याग देते हैं कि वे कठिन हैं, या इस डर से कि वे शारीरिक रूप से अत्यधिक मेहनत के कार्य हैं, ऐसे लोग रजोगुण की स्थिति के त्याग में संलग्न हैं | ऐसे लोग सच्ची विरक्ति का लाभ कभी प्राप्त नहीं करते |
हे अर्जुन, जब निर्धारित कर्मों को प्रतिफल की इच्छा का त्याग करके, केवल कर्तव्य समझकर निभाया जाता है, तो ऐसे त्याग को सत्त्वगुण में माना जाता है |
बुद्धिमान त्यागी, जो सत्त्वगुण की स्थिति में तल्लीन रहता है, जिसने अपनी सभी शंकाओं को निरस्त कर दिया है, ना तो वह कठिन कर्तव्यों को नापसंद करता है और ना ही सुखद कर्तव्य से लगाव रखता है |
देहबद्ध जीवो के लिए अपने सभी कर्मों का त्याग करना संभव है | जबकि, जो अपने कर्मों के फलों की इच्छा का त्याग करते हैं वे सच्चे त्यागी कहलाते हैं |
जो लोग त्याग को स्वीकार नहीं करते हैं वे मृत्यु के बाद तीन प्रकार के फल को प्राप्त करते हैं – अच्छे, बुरे और मिश्रित | परंतु सच्चे सन्यासी ऐसे परिणाम कभी नहीं पाते |
हे महाबाहु अर्जुन, वेदांत में वर्णित सभी कार्यों को पूरा करने वाले पांच कारकों को मुझसे सीखो |
आधार (शरीर), क्रियाओं का कर्ता (मिथ्या अहंकार), साधन (इंद्रियां), विभिन्न प्रकार के प्रयास, और परम-पुरुष – ये पांच कारक हैं जो सभी कर्मों को संपन्न करते हैं |
यह पांच कारक, अच्छे, बुरे दोनों ही कर्मों के स्रोत हैं, जिनका देहबद्ध जीव इस संसार में अनुभव करते हैं |
फिर भी, एक मूर्ख व्यक्ति जो केवल स्वयं को ही कर्ता मानता है, वह अल्प बुद्धि के कारण इस विषय को नहीं समझ सकता |
जो मिथ्या अहंकार से रहित है और जिनके मन विरक्त है – वे भले ही इस युद्ध के मैदान पर सभी का संहार कर दे, तब भी वास्तव में वे संहारक नहीं होंगे और वे अपने कर्मों के बंधन में नहीं बंधते |
ज्ञान, ज्ञान का उद्देश्य और ज्ञाता यह तीन तत्व हैं जो कर्म करने के लिए उत्तेजित करते हैं | इंद्रियां, कर्म और कर्ता – ये कर्मों के तीन संघटक हैं |
सांख्य ग्रंथो के अनुसार, ज्ञान, कर्म और कर्म के कर्ता को प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन तरह से वर्गीकृत किया गया है | अब तुम उनके बारे में सुनो |
वह ज्ञान जिससे अनंत रूपों में विभक्त सारे जीवो में एक अविभक्त अविनाशी तत्व देखा जाता है, उस ज्ञान को सात्विक समझा जाता है |
जबकि, वह ज्ञान जिसके द्वारा विभिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न प्रकार के जीवों को देखा जाता है, उसे राजसिक ज्ञान कहा जाता है |
और वह ज्ञान जिसके द्वारा व्यक्ति एक ही प्रकार के कार्य में आसक्ति रखता है, जिसमें कोई सत्य नहीं होता और जो तुच्छ लक्ष्य पर आधारित होता है, उस ज्ञान को तामसिक समझा जाता है |
आसक्ति एवं द्वेष से रहित, फल की इच्छा किए बिना विनियमित कर्मों को सत्त्वगुण में कहा जाता है |
अहमभाव से, लाभ की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले अथक परिश्रम के कार्यों को रजोगुण में कहा जाता है |
परिणाम, नुकसान, क्षति, या व्यक्तिगत क्षमता पर विचार किए बिना, मोह के कारण किए जाने वाले कार्यों को तमोगुण में कहा जाता है |
जो मनुष्य आसक्ति एवं अहमभाव से रहित होकर कार्य करते हैं, जो सहनशील, उत्साहपूर्ण, और लाभ या नुकसान से अप्रभावित हैं, उन्हें सात्विक माना जाता है |
जो मनुष्य अपने कर्मों के परिणाम का आनंद लेने के लिए कार्य करने की इच्छा रखते हैं, लालची होते हैं, स्वभाव से हिंसक होते हैं, सुख एवं दु:ख से प्रभावित होते हैं, उन्हें राजसिक माना जाता है |
जो मनुष्य अपने कर्मों को अनुशासनहीन तरीके से करते हैं, जो अशिष्ट, जिद्दी, बेईमान, अपमानजनक, आलसी, बुरे स्वभाव वाले और शिथिलक होते हैं, उन्हें तामसिक माना जाता है |
हे धनंजय, ध्यान से सुनो, अब मैं तुम्हें प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार विभिन्न मनोवृत्तियां एवं संकल्पना की व्याख्या देता हूं |
हे पार्थ, सत्त्वगुण में मनोवृति ऐसी है जो यह भेद कर सके कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, क्या कर्तव्य है और क्या नहीं, किसका भय करना चाहिए और किसका नहीं, एवं भौतिक बंधन तथा मुक्ति के स्वभाव में क्या अंतर है |
हे पार्थ, राजसिक प्रवृत्ति वह है जिसमें मनुष्य धर्म और अधर्म के बीच भेद नहीं कर सकता है, उचित और अनुचित के अंतर को नहीं समझ सकता, और यह तय नहीं कर पाता कि उसका कर्तव्य क्या है और क्या उसका कर्तव्य नहीं है |
हे पार्थ, तामसिक मनोवृति वह है जिसमें मनुष्य अधर्म को धर्म मानता है एवं धर्म को अधर्म मानता है | वह सब कुछ यथार्थ के विपरीत समझता है |
हे पार्थ, वह संकल्प, जिसके द्वारा मनुष्य सख्ती से मन, प्राण-वायु और इंद्रियों को योग की प्रक्रिया के माध्यम से नियंत्रित करता है वह सात्विक भाव में होता है |
हे पार्थ, वह संकल्प जिसमें व्यक्ति धन अर्जित करने और भौतिक इच्छाओं को पूरा करने के लिए धर्मनिष्ठता बनाए रखता है, वह राजसिक भाव में होता है |
हे पार्थ, उन लोगों के संकल्प जो नींद, भय, शोक, विषाद और अभिमान को नियंत्रित नहीं कर सकते, वे तामसिक भाव में होते हैं |
हे भरतवंश के सर्वश्रेष्ठ, अब मुझसे तीन प्रकार के सुख के बारे में जानो | वह सुख जिसके द्वारा सभी दुखों का अंत होता है सत्वगुण में है | ऐसा सुख आरंभ में विष के समान होता है, परंतु अंत में वह अमृत के समान होता है क्योंकि वह व्यक्ति में आत्म साक्षात्कार जागृत करता है |
वह सुख जो इंद्रियों और विषय-वस्तुओं के बीच के संपर्क से उत्पन्न होता है, जो आरंभ में अमृत की तरह होता है, लेकिन अंत में विष बन जाता है, ऐसे सुख को रजोगुण में कहा जाता है |
वह सुख जो नींद, आलस्य और भ्रम से उत्पन्न होता है और आरंभ व अंत दोनों में ही आत्मा-भ्रामक होता है, वह सुख तमोगुण में होता है |
पृथ्वी पर या देवताओं में भी कोई ऐसा प्राणी नहीं है, जो भौतिक प्रकृति के इन तीनों गुणों से मुक्त है |
हे शत्रु विजई, हे अर्जुन, जानो की ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को भौतिक प्रकृति के तीन गुणों में उनके कर्मों के लक्षणों के अनुसार वर्गीकृत किया गया है |
शांति, आत्म-नियंत्रण, तपस्या, स्वच्छता, दयाशीलता, सत्यता, ज्ञान, प्रज्ञता और भगवान में श्रद्धा – यह सब एक ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं |
वीरता, तेज, दृढ़ता, निपुणता, युद्ध से कभी पलायन न करना, दान देना और सामाजिक प्रशासन – यह एक क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं |
खेती, गौ-रक्षा और व्यवसाय एक वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं | तथा अन्य वर्गों की सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म हैं |
अब मुझसे उनके बारे में जानो, जो अपने निर्धारित कर्मों का पालन करते हैं वे कैसे परम सिद्ध प्राप्त सिद्धि प्राप्त करते हैं |
मनुष्य अपने निर्धारित कर्मों का पालन करते हुए, उस परमेश्वर की उपासना से परम सिद्धि प्राप्त करते हैं, जिनसे सभी चीज उत्पन्न होती हैं और जो सर्वभूत हैं |
किसी दूसरे के कर्तव्यों (धर्मों) को पूर्ण रूप से में निभाने से बेहतर है कि स्वयं के कर्तव्यों को अपूर्ण रूप से निभाया जाए | जब व्यक्ति अपने स्वभाव के अनुसार अपने निर्धारित कर्मों को करता है तब वह पाप का दोषी नहीं होता है |
हे कुंतीपुत्र, अपने निर्धारित कर्मों का कभी त्याग नहीं करना चाहिए | सभी कर्म किसी न किसी दोष से आवरित रहते हैं जैसे की अग्नि धुएं से आवरित होता है |
भौतिक वस्तुओं में अनासक्ति, भौतिक सुखों की अवहेलना, अपने निर्धारित कर्मों को करना एवं इसके फलों की चिंता से मुक्त रहने से संन्यास की उत्तम अवस्था प्राप्त होती है |
हे कुंतीपुत्र, मुझसे यह जानों कि, उस तरह के आचरण से जिसे मैं तुम्हें संक्षेप में वर्णन करने वाला हूं, व्यक्ति कैसे परम सिद्धि प्राप्त कर सकता है |
शुद्ध बुद्धिमत्ता के साथ, मन को दृढ़ निश्चय से संयमित रखने इंद्रिय-वस्तुओं के प्रति आसक्ति को त्यागना, आसक्ति और घृणा दोनों में रहित होना, एकांत स्थान पर रहना, अल्प भोजन करना, वाणी, शरीर और मन को वश में रखना, भगवान के निरंतर ध्यान में संलग्न रहना, वैराग्य, अहंकार, शक्ति के दुरुपयोग, दंभ, वासना, क्रोध, लोभ से मुक्त और नि:स्वार्थ एवं शांतिपूर्ण होना – ऐसा व्यक्ति परम सिद्धि की प्राप्ति के योग्य है |
जब ऐसे आत्म-संतुष्ट व्यक्ति को पूर्ण सत्य की अनुभूति होती है, तब वह न आनंदित होता है और न विलाप करता है | सभी प्राणियों को समान भाव से देखते हुए वह मेरे प्रति पारलौकिक भक्ति को प्राप्त कर लेता है |
ऐसी भक्ति के माध्यम से वह व्यक्ति सत्य रूप में मुझे जानता है | इस प्रकार, मुझे सत्य रूप में जानकर वह मेरे परमधाम में प्रवेश करता है |
हालांकि व्यक्ति विभिन्न कर्मों में लगातार संलग्न रहता है, फिर भी मेरी कृपा से, जो मेरा आश्रय लेता है, वह मेरे शाश्वत निवास पहुंच जाता है |
सचेत रूप से अपने सभी कर्मों को मेरे प्रति अर्पण करते हुए, मुझे अपना सर्वोच्च लक्ष्य मानते हुए, और भक्ति-योग (बुद्धि-योग) का आश्रय लेते हुए, सदैव मेरा मनन करो |
यदि तुम मेरा चिंतन करते हो तो मेरी कृपा से तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे | लेकिन अपने झूठे अहंकार से यदि तुम मुझे अनदेखा करते हो, तो तुम्हारा नाश हो जाएगा |
यदि झूठे अहंकार के कारण तुम सोचते हो, “मैं युद्ध नहीं करूंगा,” तो तुम्हारा निर्णय व्यर्थ होगा क्योंकि तुम्हारा स्वभाव ही तुम्हें युद्ध करने पर विवश करेगा |
अपने आंतरिक स्वभाव से बंधे होने के कारण, तुम जिन कर्तव्यों को करने से मना कर रहे हो, हे कुंतीपुत्र, वे अनिवार्य रूप से तुम्हारे द्वारा की ही किए जाएंगे |
हे अर्जुन, परमेश्वर सभी के हृदय में निवास करते हैं | अपनी मायावी शक्ति द्वारा उनके सभी कार्यों को वे (परमेश्वर) ही निर्देशित करते हैं, जैसे कि उन्हें कोई मशीन (यंत्र) पर लगाया गया हो |
हे भारत, अपने पूर्ण हृदय से उनमें शरण लो, और उनकी कृपा से तुम शाश्वत शांति एवं उनका सर्वोच्च निवास प्राप्त करोगे |
मैं अब तुम्हारे सामने उस ज्ञान को उजागर किया है जो सबसे गोपनीय है | अब तुम इस पर सोच विचार कर जो तुम्हें उचित लगे वह करो |
एक बार फिर से यह सबसे गूढ रहस्य को सुनो, मेरे सर्वोच्च निर्देश को सुनो | क्योंकि तुम मुझे अत्यंत प्रिय हो, इसलिए मैं तुम्हारे परम हित के लिए तुम्हें यह बता रहा हूं |
अपने मन को मुझ में स्थित करो, स्वयं को मुझ पर समर्पित करो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | ऐसा करने से तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें इसका वचन देता हूं क्योंकि तुम मुझे बहुत प्रिय हो |
सभी प्रकार के धर्मों का परित्याग कर दो – अपने आप को केवल मुझ पर समर्पित करो! डरो मत, क्योंकि निश्चित रूप से मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त करूंगा |
यह ज्ञान उन लोगों को कभी नहीं बताना चाहिए जो आत्म-संयमित नहीं है, जो भक्त योग का पालन नहीं करते हैं या जो मुझे ईर्ष्या करते हैं |
जो मनुष्य दूसरों को भक्ति-योग का सर्वोच्च रहस्य सीखाता है, वह भक्ति के उच्चतम स्थान को प्राप्त कर लेता है और मेरी पूर्ण चेतना प्राप्त करता है | इसमें कोई संदेह नहीं |
ऐसे भक्त से बढ़कर मेरे लिए जगत में और कोई प्रिय नहीं है | और ना ही कभी कोई मुझे उतना प्रिय होगा जितना कि वह जो इस सर्वोच्च रहस्य को दूसरों को सीखाता है |
जो लोग हमारे इस पावन वार्तालाप का अध्ययन करते हैं वे मुझे ज्ञान यज्ञ के माध्यम से पूजते हैं | यह मेरा निष्कर्ष है |
जो लोग इस पावन वार्तालाप को उत्कृष्ट श्रद्धा और बिना किसी ईर्ष्या के साथ सुनते हैं वे परम सिद्धि प्राप्त कर मेरे पवित्र धाम पहुंचेंगे |
हे पार्थ, हे धनंजय, क्या तुमने इसे अविक्त ध्यान से सुना ? क्या तुम्हारी अज्ञानता और भ्रम नष्ट हुई ?
अर्जुन के वचन-
हे अच्युत, हे कृष्ण, आपका अनुग्रह से मेरा भ्रम दूर हो गया है और मेरा मानसिक संतुलन स्थापित हो गया है | अब जब मेरा संदेह दूर हो गया है मैं पुनः स्थिर हो गया हूं और अब मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा |
संजय के वचन -
इस प्रकार मैंने वासुदेव और महान अर्जुन के बीच हुए इस वार्तालाप को सुना, जो इतना अदभुत है कि मेरे रोंगटे खड़े हो गए |
व्यासदेव की कृपा से, स्वयं योगेश्वर श्री कृष्ण द्वारा कथित मैंने योग के परम गोपनीय रहस्य को सुना |
हे राजन, केशव श्री कृष्णा और अर्जुन के मध्य हुई इस प्रगाढ़ वार्तालाप को बारंबार स्मरण करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूं | जब मैं भगवान श्री कृष्ण के अद्भुत रूप का स्मरण करता हूं तब मैं विस्मित हो जाता हूं |
जहां योगेश्वर श्री कृष्ण हैं और पराक्रमी धनुर्धर अर्जुन हैं, वहां सदा समृद्धि, विजय, ऐश्वर्य एवं धार्मिकता रहेगी – यह मेरा दृढ़ विश्वास है |
ॐ तत् सत् – श्रीमद् भागवत गीता उपनिषद में श्री कृष्ण और अर्जुन के संवाद से लिए गए मोक्ष योग नामक अठारहवेें अध्याय की यहां पर समाप्ति होती है|
आपका कोटि-कोटि धन्यवाद, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण ||
अतः श्रीमद् भागवत गीता की समाप्ति होती है |
ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने ।
प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः ।।
“Om Krishnaya Vasudevaya Haraye Paramatmane
Pranatah Kleshanashaya Govindaya Namo Namah”
Your article helped me a lot, is there any more related content? Thanks!