Bhagavad Gita Updesh पुरुषोत्तम योग – अपनी शक्तियों से मैं पृथ्वी में प्रवेश करता हूं और सभी जीवो का पालन करता हूं | मैं चंद्रमा बनाकर सभी वनस्पतियों का पोषण करता हूं, और उन्हें जीवन सत्त्व प्रदान करता हूं |
जय श्री कृष्ण, मैं हूं विशाल यादव, आपका दोस्त, और मैं गीता उपदेश के अध्याय 15 के श्लोको का सार तत्व यहां पर लिख रहा हूं, और आशा करता हूं की यह गीता ज्ञान जो प्रभु श्री कृष्ण द्वारा कही गई है, आपको जीवन में नई ऊंचाइयां और सफलताओं को पाने में मार्गदर्शन करेगी| जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण|
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पुरुषोत्तम योग
श्री कृष्ण के वचन -
ऐसा कहा गया है कि एक अविनाशी बरगद का वृक्ष है जिसकी जड़े ऊपर की ओर हैं, शाखाएं नीचे की ओर है, और जिसके पत्ते वैदिक मंत्र हैं | जो इस वृक्ष को जानता है वह वेदों का ज्ञाता है|
इस वृक्ष की कुछ शाखाएं ऊपर की ओर फैली हुई हैं और अन्य नीचे की ओर बढ़ती हैं, जो भौतिक प्रकृति के गुणों से पोषित होती हैं, पेड़ की टहनियों इंद्रिय-वस्तु हैं, और जड़े जो नीचे की और विस्तृत हैं, वे मानव तल तक पहुंचती हैं, और ये मानव समाज के बंधनकारक कर्मों का कारण है |
इस वृक्ष के रूप को इस संसार में प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता | सचमुच, कोई भी पूरी तरह से इस वृक्ष को समझ नहीं सकता कि यह वृक्ष कहां से शुरू होता है, कहां समाप्त होता है, या इसकी नीव कहां है |
व्यक्ति को इस मजबूत जड़ वाले बरगद के वृक्ष को विरक्ति के हथियार से काट देना चाहिए और उस स्थान की खोज करना चाहिए, जहां पहुंचकर कोई वापस नहीं आता | मनुष्य को परम पुरुष का आश्रय लेना चाहिए, जिसके द्वारा सभी चीज अनादि काल से उत्पन्न हुई हैं |
अभिमान, भ्रम और बुरी संगत से मुक्त, आध्यात्मिक खोज में समर्पित, काम प्रवृत्ति का त्याग, सुख और दु:ख की द्वंद से मुक्त – ऐसे बुद्धिमान व्यक्ति शाश्वत पद प्राप्त करते हैं |
मेरा तेजोमय परम धाम सूर्य, चंद्र या अग्नि द्वारा प्रकाशित नहीं है | एक बार उस धाम को प्राप्त कर लेने के पश्चात व्यक्ति पुन: नहीं लौटता |
इस संसार के सभी जीव मेरे ही नित्य अंश हैं | ये जीव पांच इंद्रियों एवं छठवें इंद्रिय के रूप में अपने मन से कड़ी संघर्ष करते हैं |
जब भी कोई जीवात्मा – शरीर का स्वामी, शरीर का ग्रहण या त्याग करता है, तब उसकी इंद्रियां एवं उसके मन अगले जन्म में उसके साथ ही इस तरह चलते हैं, जिस तरह पवन सुगंध को अपने स्रोत से उड़ा ले जाता है |
कान, आंख, त्वचा जीभ, नाक और मन के स्वामी के रूप में जीवात्मा, विषय-वस्तुओं का आनंद लेता है |
जो अज्ञानी हैं वे आत्मा को न तब समझते हैं जब वह शरीर का त्याग कर रही हो, न तब जब वह शरीर में निवास कर रही हो, और न तब जब वह विषय-वस्तुओं का भोग कर रही हो | जिन्हें ज्ञान-चक्षु प्राप्त है केवल वही इसे समझ सकते हैं |
निष्ठावान योगी अपने भीतर स्थित आत्मा को देखते हैं, लेकिन जिनमें सच्ची समझ और आत्म-नियंत्रण की कमी होती है, वे इस बात को समझ नहीं पाते चाहे वे कितना भी प्रयास कर लें |
यह जानो कि मैं ही सूर्य, चंद्रमा और अग्नि का प्रकाश हूं जो सारे जगत को रोशन करता हूं |
अपनी शक्तियों से मैं पृथ्वी में प्रवेश करता हूं और सभी जीवो का पालन करता हूं | मैं चंद्रमा बनाकर सभी वनस्पतियों का पोषण करता हूं, और उन्हें जीवन सत्त्व प्रदान करता हूं |
मैं सभी प्राणियों में रहने वाली पाचन की अग्नि (वैश्वानर) हूं, सभी प्रकार के भोजन को पचाने के लिए मैं ही अंदर आने वाली प्राण-वायु तथा बाहर जाने वाली अपान-वायु में सम्मिलित हूं |
मैं सभी जीवित प्राणियों के हृदय में वास करता हूं, और मुझसे ही स्मरण, ज्ञान और विस्मृति पैदा होते हैं | सभी वेदों द्वारा केवल मुझे ही जाना जाता है | मैं वेदांत का रचयिता हूं एवं मैं ही वेदों का ज्ञाता हूं |
दो प्रकार के जीव होते हैं – वे जो भौतिक जगत में हैं और वे जो आध्यात्मिक जगत (बैकुंठ) में होते हैं | भौतिक दुनिया में सभी जीव क्षर (दोषक्षम) हैं, जबकि आध्यात्मिक जगत में सभी जीव अक्षर (अमोघ) होते हैं |
एक और व्यक्ति हैं, जो परम पुरुष हैं, जो अविनाशी परम चेतना हैं, और तीनों (उच्च मध्य एवं निम्न) लोको में प्रवेश करके उनका पालन करते हैं |
मैं सभी क्षर प्राणियों से श्रेष्ठ हूं, और मैं उनके भी परे हूं जो अक्षर हैं | इसलिए मैं ब्रह्मांड और वेदों में परम (पुरुषोत्तम) के रूप में गौरवान्वित हूं |
हे भारत, जो भ्रम से मुक्त होता है वह मुझे परम पुरुष के रूप में जानता है | ऐसा व्यक्ति सब कुछ जानता है और पूरे मन से मेरी आराधना करता है |
हे दोषहीन अर्जुन, इस प्रकार मैंने तुम्हें शास्त्र के सबसे बड़े रहस्य को समझाया है | हे भारत इसे समझकर मनुष्य ज्ञान को प्राप्त करता है और उसके सभी कर्म शुद्ध एवं परिपूर्ण हो जाते हैं |
ॐ तत्सत- श्रीमद् भागवत गीता उपनिषद में श्री कृष्ण और अर्जुन के संवाद से लिए गए पुरुषोत्तम योग नामक पन्द्रहवेें अध्याय की यहां पर समाप्ति होती है|
आपका कोटि-कोटि धन्यवाद, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण ||
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