हेलो दोस्तों, मेरा नाम विशाल यादव है और प्रभु श्री कृष्ण के द्वारा कही गई गीता के अध्याय से उनके सार यहां पर लिख रहा हूं|
आशा करता हूं कि इस गीता के कुछ श्लोक द्वारा आपके जीवन के दुखों का अंत हो और आपको एक नई दिशा मिले एक नई सोच मिले और आप जीवन में आगे पथ पर बढ़े|
प्रभु श्री कृष्ण ने गीता का ज्ञान उसे वक्त दिया जब कौरवों और पांडवों में युद्ध आरंभ होने वाला था युद्ध आरंभ होने से पहले ही युद्ध के मैदान में प्रभु श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया| Bhagavad Gita by Shri Krishna- Jai Shri Krishna
Table of Contents
Toggleप्रथम अध्याय
सैन्य दर्शन (हे कृष्ण)
महाराज धृतराष्ट्र ने कहा- हे संजय! धर्म क्षेत्र, कुरुक्षेत्र में बड़े उत्साह के साथ युद्ध के लिए एकत्रित होकर मेरे तथा पांडू पुत्रों ने क्या किया?
संजय ने उत्तर दिया- हे महाराज! पांडव सेना की भी रचना को परख कर आपके पुत्र दुर्योधन अपने गुरु द्रोणाचार्य के निकट गए, और कहे- हे महान आचार्य! उस और देखिए, आपके मेधावी शिष्य द्रुपद पुत्र दृष्टद्युम्न द्वारा संगठित, महान पांडव सेना की व्यूहरचना को|
उन पंक्तियों में, युद्ध में भीम तथा महान धनुर्धर अर्जुन के समान, सात्यकि, विराट और महारथी द्रुपद जैसे योद्धा उपस्थित है| महान योद्धा, जैसे की दृष्टिकेतु, चकिेतान, काशी के वीर्यवान राजा, पुरोजित, कुंतीभोज तथा शैव्य भी उपस्थित है| शौर्य वन युधामन्यु, साहसी उत्तमौजस, सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु एवं द्रोपदी के पुत्र, नि:संदेह दे महारथी हैं|
यद्यपि, हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, आपको यह भी जानना चाहिए कि हमारी सेना में कौन हमारे सैन्य बल का नेतृत्व करने की योग्य है| आपकी जानकारी के लिए मैं उनके नाम दोहराता हूं|
स्वयं आप, भीष्म, कर्ण सदैव युद्ध में विजई रहे हैं एवं अश्वत्थामा, विकर्ण, भूरीश्रवा, और जयद्रथ भी इसी तरह से विजई रहे हैं| यह सभी अनेक अनेक अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित है और यह युद्ध की कला में प्रवीण है| यह एवं कई अन्य योद्धा भी मेरे लिए अपने प्राण तक न्योछावर करने के लिए तैयार है|
भीष्म के प्रक्रम द्वारा संरक्षित हमारा सैन्य बल असीमित है| दूसरी और भीम द्वारा संरक्षित विपक्ष सैन्य बल सीमित है| आपको किसी भी कीमत पर सभी सामरिक बिंदुओं में, भीष्म की सहायता एवं उनको संरक्षण प्रदान करना है|
तत्पश्चात, गुरु वंश के पितामह भीष्म ने दुर्योधन को का उत्साह बढ़ाने के लिए, सिंह की भांति दहाड़ते हुए अपने शंख को ऊंचे स्वर में बजाया| उस समय, शंख, नगाड़े, ढोल एवं तुरुहिया एक साथ बजे उठे, और उनकी सम्मिलित ध्वनि आकाश में गूंजने लगी|
युद्ध में भूमि के दूसरी ओर, श्वेत वर्ण के सुंदर अश्व (घोड़े) से जुड़े हुए भव्य रथ पर विराजमान, माधव श्री कृष्ण और अर्जुन दोनों ने अपने दिव्य शंखों को बचाएं| ऋषिकेश श्री कृष्ण ने पांचजन्य नामक शंख बजाया| धनंजय अर्जुन ने देवदत्त नमक शंख बजाया| भीम ने पांडू नामक शंख बजाया| कुंती पुत्र युधिष्ठिर ने अनंतविजय नामक शंख बजाया|
नकुल और सहदेव ने अपने शंख सुघोष एवं मनीपुष्पक को बजाए| हे राजन, महान धनुर्धर काशीराज, महारथी शिखंडी, दृष्टिद्युम्न, विराट, अजेय सात्यकि, ध्रुपद, द्रोपदी के पुत्र, तथा सुभद्रा पुत्र पराक्रमी अभिमन्यु समेत सभी ने अपने-अपने शंख बजाए| आकाश एवं धरती में गुजरती हुई इस ध्वनि उद्घोष के कारण धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय विदीर््ण(कॉप) हो गए|
धृतराष्ट्र से संजय ने कहा- हे राजन, जैसे ही युद्ध आरंभ हुआ होने वाला था, आपके पुत्रों को युद्ध के लिए तैयार देख, हनुमान के पताके से सुसज्जित रथ पर विराजमान अर्जुन ने अपना कमान को उठाया और ऋषिकेश श्री कृष्ण से इस प्रकार कहा-
अर्जुन ने प्रभु श्री कृष्ण से कहा- हे अच्युत, मेरे रथ को दोनों सनाओे के मध्य ले चलिए ताकि मैं उन योद्धाओं को देख सकूं जिनसे मुझे युद्ध है|
युद्ध भूमि पर एकत्रित हुए उन सभी योद्धाओं को मुझे देखना है जो धृतराष्ट्र के दुष्ट पुत्र दुर्योधन को प्रिय है|
जैसे ही प्रभु श्री कृष्ण, अर्जुन के रथ को युद्ध के बीच रथ लेकर जाते हैं और युद्ध में अर्जुन के पिता तुल्य परिजन, पितामह, गरुजन, मामा, भाई, बेटे, पोते, ससुर और बंधु जनों को बहुत ही ध्यान पूर्वक देखा|
युद्ध भूमि में अपने सामने सगे संबंधियों को देखकर, कुंती पुत्र अर्जुन, दुख एवं करुणा के कारण बहुत ही शोकाकुल हो गए|
तब अर्जुन ने प्रभु श्री कृष्ण से कहा- हे कृष्ण, अपने सगे संबंधियों को युद्ध के लिए तैयार देख मेरे अंगों से मेरा बल क्षीण हो रहा है, कम हो रहा है, और मेरा मुंह सूख रहा है| मेरे शरीर में कंपन हो रहा है, मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं, मेरी त्वचा जल रही है, और गांडीव (धनुष) से मेरी पकड़ फिसल रही है|
हे कृष्ण, हे केशव, मेरा मन भ्रमित हो गया है, मैं धैर्य नहीं रख पा रहा हूं, और मुझे अशुभ लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं| हे कृष्ण, इस युद्ध भूमि में अपने स्वजनों को मार कर या वध कर कर, कोई लाभ दिखाई नहीं देता| ना तो मुझे विजय की इच्छा है, ना ही राज्य सुख के भोग की|
हे गोविंद, जिनके लिए हम राज्य, या जीवन कमाना चाहते हैं, जब वे ही हमारे विरुद्ध इस युद्धभूमि में एकत्रित हो जाते हैं, तो इनका क्या मोल रह जाता है? राज्य और उसके भोग क्या उपयोग जब जिनके लिए हम इन सब की कामना करते हैं – हमारे गुरुजन, अग्रज, पुत्र, पितामह, मामा, ससुर, पोते, बहनोई और अन्य सगे संबंधी जो इस रणभूम में उपस्थित है- वे स्वयं युद्ध में अपने राज्यों एवं प्राणों को जोखिम में डालने के लिए तत्पर है? हे मधुसूदन, यदि वे मुझे मारना भी चाहे, तो भी मुझे उनका वध करने की कोई इच्छा नहीं है|
हे जनार्दन, हे परमपिता परमेश्वर, इस संसार पर शासन करना तो क्या यदि समस्त त्रिभुवन पर साम्राज्य मिले तब भी धृतराष्ट्र के संतानों का वध करके हम कैसे सुखी हो पाएंगे?
हे माधव, यदि हम अपने सगे संबंधियों का वध करते हैं, भले ही वह हमारे विरुद्ध क्यों ना हो, तो हम पर बहुत दुर्भाग्य अवश्य ही आएगा| धृतराष्ट्र के पुत्रों एवं अपने परिजनों का वध करना उचित नहीं है| अपने ही परिजनों का वध करके हम कैसे सुखी हो सकते हैं?
हे जनार्दन, हालांकि इन लोगों के चित्त लोभमय है, और इन्हें अपने मित्रों से कपट करने या संबंधियों का वध करने में कोई दोष दिखाई नहीं दे रहा है, इस परिणाम को जानते हुए भी हम ऐसे घोर कार्य में क्यों लगे?
स्वजनों के नाश से वंश की परंपरा सदैव के लिए नष्ट हो जाती है और जब रीति रिवाज मिट जाते हैं, तो समस्त वश में अधर्म प्रचलित हो जाता है ।
हे कृष्ण, हे प्रभु, जब अधर्म फैलता है तब कल की स्त्रियां कलुषित हो जाती हैं । स्त्रियों के धर्म पतन से अवांछित संतानों की उत्पत्ति होती है । अवांछित संतान, कुल और कुल की परंपरा के विध्वंसक, दोनों के समक्ष एक असहज स्थिति उत्पन्न करते हैं । श्राद्ध-कर्म के भंग हो जाने से उनके पूर्वजों का भी पतन हो जाता है । कुल की परंपरा के विध्वंसक के ऐसे अनर्थकारी व्यवहार से अवांछित संतानों की आबादी बढ़ती है जो सभी पारिवारिक और सामाजिक परंपराओं को जड़ से मिटा देती है|
हे जनार्दन, मैंने सुना है कि जो व्यक्ति पारिवारिक, सामाजिक या आध्यात्मिक मान्यताओं का नाश करता है, वह सदैव के लिए घृणित अवस्था को भुगतता है । ओह! हमने कितना घोर पाप करने की ठानी है- केवल राज्य सुख भोगने के लिए अपने ही स्वजनों का वध करने चले हैं!
यदि धृतराष्ट्र के पुत्र, अपने हाथों में लिए अस्त्र से, इस युद्ध भूमि में मुझ निहत्थे और निर्विरोध का वध कर दें, तो उसे ही मैं बेहतर समझूगा।
द्वितीय अध्याय (हे कृष्ण)
श्री परमात्मा प्रभु श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा-
प्रभु श्री कृष्ण ने कहा- अर्जुन, इस संकटपूर्ण घड़ी में तुम्हें इस भ्रांति ने कैसे जकड़ लिया ? एक आर्य के लिए या उचित नहीं, और ना यह उसे स्वर्ग की ओर लेकर जाता है । बल्कि, यह अपयश का कारण बन सकता है । हे पार्थ, ऐसी नामर्दी छोड़ो । तुम्हें यह शोभा नहीं देती । हे परतंप (शत्रुओं को दंड देने वाला), उठो और इस प्रकार के दुर्बल हृदय के वश में मत आओ ।
अर्जुन ने उत्तर में कहा-
हे मधुसूदन, युद्ध में भी भीष्म और द्रोण जैसे बुजुर्गों पर मैं कैसे अपने बाणोों की वर्षा कर सकता हूं, जब वे मेरे सम्मान के पात्र हैं? अपने सम्माननीय अंग्रेजों का वध करने से बेहतर है कि मैं इस संसार में भीख मांग कर अपना जीवन यापन करूं । अन्यथा, जो धन संपत्ति का हम यहां उपभोग करेंगे वह उनके लहू से लथ-पथ होगी ।
मैं नहीं जानता कि क्या हमारे लिए क्या श्रेष्ठ है- उन पर विजय प्राप्त करना या उनसे पराजित हो जाना । यहां, हमारे समक्ष एकत्रित धृतराष्ट्र के पुत्रों का यदि हम वध करते हैं तो मुझे जीवित रहने की कोई अभिलाषा नहीं रहेगी । मेरी स्वाभाविक क्षत्रीयता कमजोर हो रही है और भ्रम के कारण मैं धर्म के मार्ग को पहचान नहीं पा रहा हूं । कृपया यह बताएं कि मेरे लिए सबसे हितकारी कार्य क्या है? अब मैं स्वयं को आपके शिष्य के रूप में समर्पित करता हूं । कृपया मुझे उपदेश प्रदान करें ।
यदि मैं एक अप्रतिम संपन्न साम्राज्य और देवों जैसी शक्ति भी प्राप्त कर लूं, फिर भी इन चीजों में मैं ऐसा कुछ नहीं देख रहा जो मेरे इंद्रियों को क्षय कर रहे इस शोक को मिटा सके ।
प्रभु श्री कृष्ण से अर्जुन ने इस प्रकार कहकर की, हे कृष्ण, हे गोविंद, हे मधुसूदन, मैं युद्ध नहीं करूंगा!, और फिर मौन हो गए ।
श्री परमात्मा प्रभु श्री कृष्णा ने कहा-
श्री कृष्णा मुस्कुराते हुए, शोक में डूबे हुए अर्जुन से इस प्रकार बोले, हे भारत वंशज, तुम एक बुद्धिमान की तरह बात कर रहे हो, परंतु तुम उस बात पर शोक कर रहे हो जिस पर शोक करना बेकार है । बुद्धिमान ना तो जीवित व्यक्तियों पर और ना मृतक लोगों पर शोक करते हैं ।
ऐसा कभी नहीं था जब तुम नहीं थे, या मैं नहीं था या यहां उपस्थित सारी योद्धा नहीं थे । और ना ही भविष्य में कभी नहीं होंगे । जिस प्रकार आत्मा, बाल्यावस्था, युवावस्था और बुढ़ापे के दैहिक रूपांतरण से गुजरती है, इस प्रकार मृत्यु के समय वह एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेती है ।
हे कुंती पुत्र, इंद्रियों और उनके अनुरूपी विषय वस्तुओं की अंतः क्रिया ही ठंडक, गर्मी, सुख और दुख जैसी संवेदनाएं उत्पन्न करती हैं । यह संवेदनाएं अस्थाई होने के कारण आती जाती रहती हैं । अतः, हे भारत (अर्जुन), तुम इनका सहन करो । हे आर्य, एक संयमी जो सुख और दुख दोनों में संतुलित रहता है और अशांत नहीं होता, वह अवश्य मोक्ष की प्राप्ति के योग्य है ।
वह जो अस्थाई है उसका शाश्वत अस्तित्व नहीं होता । वह जो शाश्वत है उसका विनाश या विकार नहीं होता । सत्य को जानने वालों ने इन दोनों की वैधानिक स्थितियों को साकार किया है ।
यह निश्चित रूप से जनों की संपूर्ण शरीर में व्याप्त आत्मा अविनाशी होती है| इस अविनाशी आत्मा को कोई भी नाश नहीं कर सकता| देहबद्ध आत्मा शाश्वत, अविनाशी और अपरिमित होता है| केवल शरीर नश्वर होता है| इसलिए है अर्जुन, युद्ध करो!
जो यह समझते हैं कि यह आत्मा हत्या कर सकता है या आत्मा की हत्या की जा सकती है या हो सकती है, वे दोनों ही अज्ञानी है- क्योंकि आत्मा ना तो हत्या कर सकता है ना उसकी मृत्यु हो सकती है या होती है|
आत्मा ना तो कभी जन्म लेता है ना मरता है| उसका न कभी सृजन हुआ था ना कभी सृजन होगा| वह अजात, नित्य, शाश्वत व कालातीत है- भौतिक शरीर के नष्ट हो जाने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता|
हे पार्थ जब आत्मा नित्य,अजात, व अविनाशी है तो कैसे कोई इसका वध कर सकता है? जिस तरह हम पुराने वस्त्र को छोड़कर नए वस्त्र धारण करते हैं इस तरह आत्मा भी पुराने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण करता है| आत्मा को कोई अस्त्र काट नहीं सकता, अग्नि जल नहीं सकता, पानी भिगो हो नहीं सकती, और हवा सुख नहीं सकती|
आत्मा अविनाशी है, इसे जलाया नहीं जा सकता, अभुलनशील है, और उसे मुरझाया नहीं जा सकता| वह नित्य है, सर्वव्यापी है, अपरिवर्ती है, अचल है, और सनातन है| अव्यक्त है, अचिंत्य है, और अविकारी है| इस तरह यदि तुम आत्मा के लक्षणों को समझो तो तुम्हारा शौक जताना उचित नहीं है|
हे महाबाहु, यदि तुम यह भी मान लो की आत्मा नित्य जन्म और मृत्यु के अधीन है, तब भी शक का कोई कारण नहीं है| क्योंकि जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है| जिसकी मृत्यु हो गई है, उसका जन्म निश्चित है| अतः जिसे टाल नहीं सकते उसे पर तुम्हें शक करना उचित नहीं|
हे भारत, जन्म से पहले सभी जीव अव्यक्त होते हैं, जन्म और मृत्यु के बीच में व्यक्त होते हैं, और मृत्यु के पश्चात फिर अव्यक्त हो जाते हैं| तो इसमें शक का कारण कहां है?
कुछ लोग आत्मा को आश्चर्यजनक मानते हैं, कुछ आश्चर्यजनक कहकर उसका वर्णन करते हैं, अन्य यह सुनते हैं कि वह आश्चर्यजनक है- और कुछ, सुनकर भी कुछ नहीं जानते|
यह आत्मा जो हर एक जीव- जंतुओं के शरीर में वास करती है, वह नित्य और अवध्य होती है, हे भारत! इसलिए तुम्हें किसी पर शोक नहीं करना चाहिए| और तो और, तुम्हारे स्वधर्म के अनुसार, तुम्हें झिझकना नहीं चाहिए, क्योंकि एक क्षत्रिय के लिए धर्म की रक्षा हेतु युद्ध कार्य करने से बेहतर अन्य कोई कर्म नहीं है|
हे पार्थ, केवल सबसे भाग्यशाली क्षत्रियों को ही ऐसे युद्ध में भाग लेने का सौभाग्य प्राप्त होता है, जो स्वत: तुम्हारे सामने स्वर्ग द्वार बनकर आया है| किंतु तुम इस धर्म युद्ध में भाग नहीं लेते हो, तो तुम्हारा धर्म भ्रष्ट हो जाएगा, यश तुम्हें त्याग देगा, और तुम पाप ग्रस्त हो जाओगे| आने वाले हर समय में लोग तुम्हारी अकीर्ति को दोहराते रहेंगे, और जो महान होते हैं, उनके लिए अपयश मृत्यु से बदतर होती है| महारथी योद्धा या सोचेंगे कि भय के कारण तुम युद्ध से भाग गए| तुम्हारा अत्यंत आदर करने वाले तुम्हें अपनी नजरों से गिरा देंगे| तुम्हारा शत्रु अपमानजनक वचनों से तुम्हारी वीरता का तिरस्कार करेंगे| इससे बढ़कर दुखदाई स्थिति और क्या हो सकती है?
हे कुंती पुत्र, यदि तुम मर जाते हो तो तुम्हें स्वर्ग प्राप्त होगा, और यदि तुम विजई होते हो तो तुम इस पृथ्वी पर राज करोगे| अतः अपनी सफलता पर विश्वास रखो- उठो और युद्ध करो!
सुख हो या दुख, लाभ हो या हानि, विजय हो या पराजय, सदैव धीरज रखो- युद्ध करो, और इस तरह तुम पाप से बचोगे|
हे अर्जुन, हे पार्थ, मैंने तुम्हें आत्मा का ज्ञान प्रदान किया है| अब यह सुनो की इस पर अमल कैसे करें, जिसके सहारे तुम कर्म के बंधन से मुक्त हो पाओगे| इस धर्म का अमल करने में ना कोई नुकसान है और ना ही इसके प्रतिफल में कोई कमी है| इस धर्म के अंतर्गत थोड़ा सा परिश्रम भी एक जीव को महाभय से बचाता है|
हे कूरु वंशज, आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता केंद्रित व अनन्य होती है, जबकि प्रपंचायत सुख की कामना करने वाले की बुद्धि बहुत ही शाखों में विभाजित होती है| हे पार्थ, जो अल्प बुद्धि होते हैं वे वेदों के गलत अर्थ निरूपण से यह दावा करते हैं कि सृष्टि का कोई ईश्वरी सिद्धांत नहीं होता| अतः वे केवल उन वाक्य का गुणगान करते हैं जो उनकी इंद्रियों को सुखदायक लगे|
चूंकि उनके हृदय स्वार्थी मनोकामनाओं से भरे होते हैं, और चूंकि स्वर्ग की प्राप्ति ही उनके जीवन का लक्ष्य होता है, वह ऊंचा जन्म, धन और सत्ता प्रदान करने वाले कर्मकांड के अनेक अनुष्ठानों की संस्तुति करते हैं जो उन्हें भोग व ऐश्वर्य की ओर ले चलते हैं| इस तरह के इरादों को लेकर, इंद्रिय तृप्ति और सांसारिक भोग का चिंतन करने वाले यह लोग, कभी भी परम सत्य की धारणा के लिए आवश्यक मानसिक संकल्प एकत्रित नहीं कर पाते |
वेद त्रिगुणो पर आधारित विषयों की चर्चा करते हैं| हे अर्जुन, विशुद्ध आध्यात्मिक चेतना में स्थित रहकर, लाभ और रख-रखाव के उद्देश्य से मुक्त होकर, द्वंद मुक्त बनो| इस तरह तुम इन त्रिगुणो से ऊपर उठ पाओगे|
एक विशाल सरोवर उन सभी उद्देश्यों की पूर्ति करता है जो एक छोटा तालाब करता है| इस तरह, एक परम सत्य का जानकार, वेदों में निहित सभी उद्देश्यों की पूर्ति करता है|
तुम्हारे कर्मों के करने पर तुम्हारा अधिकार है, किंतु उन कर्मों के फल पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं| अपने कर्मों के फलों से कभी प्रेरित ना हो, और ना अपने निर्धारित कर्मों को न करने की सहज प्रवृत्ति से लगाव रखो|
है धनंजय, योग में सुदृढ़ रहो, मोह रहित होकर अपने कर्मों को करो, एवं सफलता हो या विफलता, दोनों में धीरज रखो| इस तरह के संतुलन को ही योग कहा जाता है| है धनंजय, फलकांक्षी कम(कार्य), बुद्धिमत्ता के योग से नीचा होता है| अतः बुद्धिमता का आश्रय लो| फल की आशा में कम करने वाले कृपण होते हैं|
बुद्धिमान, पुण्य एवं पाप कर्म, दोनों से परहेज रखते हैं| अतः योग में नियुक्त रहो क्योंकि योग ही सबसे उत्तम कार्य है| बुद्धिमान अपने कर्म फलों को त्याग कर, भौतिक जन्म और मृत्यु के बंधन से विमुक्त हो जाते हैं| इस तरह व वह पद प्राप्त कर लेते हैं जो समस्त दुखों के अतीत हैं|
एक बार यदि तुम्हारी बुद्धि, माया के इस घोर जल को पार कर जाए, तब सभी सुने व अनसुने विषयों से तुम विरक्त हो जाओगे| जब तुम्हारा मन वेदों की मिथ्या प्रस्तुतीकरण के प्रभाव से मुक्त हो जाएगा, तब तुम योग में सिद्धि प्राप्त करोगे|
अर्जुन ने कहा-
अर्जुन ने कहा, है केशव, दिव्य ज्ञान में उत्कृष्ट से स्थित और शुद्ध आध्यात्मिक चेतना में पूर्ण रूप से लीन व्यक्ति के क्या लक्षण होते हैं? उनकी बोली कैसी होती है? उनका उठना बैठना, चलना फिरना कैसा होता है?
श्री परमात्मा प्रभु श्री कृष्णा ने कहा-
भगवान श्री कृष्णा बोल, हे पार्थ, जब एक जीव अपने मन में प्रवेश करने वाले सभी कामनाओं का परित्याग कर भीतर से आत्मा संतुष्ट बनता है, तब या कहा जा सकता है कि वह दिव्य ज्ञान में स्थित है| वह व्यक्ति जिसका मन दुख में भी शांत रहें, जिसे सुख की अभिलाषा ना हो, जो सांसारिक बंधनों से, भय से और क्रोध से मुक्त हो, वह स्थिर बुद्धि का मुनी कहलाता है|
जो जगत के सभी वस्तुओं से असंलग्न रहे और जो शुभ और अशुभ की प्राप्ति पर हर्षित या क्रोधित ना हो, उसकी प्रज्ञा योग में प्रतिष्ठित कहलाती है| जो अपने इंद्रियों को इस तरह विषय वस्तुओं से निर्लिप्त कर सके, जैसे कि एक कछुआ अपने अंगों को अंदर खींचता है, उसे व्यक्ति की प्रज्ञा योग में प्रतिष्ठित कहलाती है| हालांकि एक देहबद्ध जीव विषय वस्तुओं का त्याग तो कर लेता है, फिर भी उनके भोग का स्वाद शेष रह जाता है| परंतु, परम सत्य के दर्शन से इस दोस्त का निवारण भी हो जाता है|
फिर भी, है कुंती पुत्र, एक विवेक की व्यक्ति के मन को भी अशांत इंद्रियां बलपूर्वक हर लेती हैं| इंद्रियों को निग्रह में रखकर, एक व्यक्ति को मुझ पर अपना ध्यान लगाना चाहिए| इस प्रकार व दिव्य ज्ञान में दृढ़ स्थित हो सकता है|
विषय वस्तुओं पर ध्यान करने से व्यक्ति उनसे बंध जाता है| बंधन से कामना उत्पन्न होती है, और कामना से क्रोध प्रकट होता है| क्रोध से विमोह उत्पन्न होता है| विमोह से स्मृति भ्रम होता है| स्मृति भ्रम से बुद्धि का नाश होता है, और बुद्धि के नाश से व्यक्ति का सर्वनाश हो जाता है|
परंतु, जो व्यक्ति विषय वस्तुओं के मध्य में होते हुए भी अपने मन एवं इंद्रियों को वश में रख सकें, और आसक्ति एवं मोह से मुक्त रह सके, वह दिव्य अनुग्रह प्राप्त करता है| दिव्य अनुग्रह की प्राप्ति से सारे दु:ख दूर हो जाते हैं| जो व्यक्ति प्रशांत मन पा लेता है, उसमें नि:संदेह दिव्य प्रज्ञता प्रकट हो जाती है|
जिसमें आत्म संयम नहीं होता वह ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता| बिना ज्ञान के समाधि प्राप्त नहीं होती| बिना समाधि के शांति प्राप्त नहीं होती, और बिना शांति के कैसे कोई प्रसन्न हो सकता है?
जिस किसी भी इंद्रिय से ग्रस्त अस्थिर मन हो जाए, वह इंद्रीय बद्धिु को इस तरह ले जाती है जैसे कि समंदर में एक प्रचंड वायु एक नाव को बहा ले जाता है| इसलिए हे महाबाहु अर्जुन, जिसके इंद्रिय विषय वस्तुओं से पूर्ण निर्लिप्त होते हैं, वह दिव्य प्रज्ञता में दृढ़ स्थित होता है|
जो अन्य लोगों के लिए रात है, वह एक आत्म संयमित संत के लिए दिवस होता है, और जो अन्य लोगों को लिए दिवस होता है, वह अंतर दर्शनात्मक संत के लिए रात होती है|
ऐसा संत जो काम के निरंतर वेग का सामना करने में अचल रहे, उन्हें तृप्त करने का प्रयास न करें, वह शांति प्राप्त करता है| नदियों के प्रवेश करने पर भी जिस तरह समंदर शांत रहता है, वह संत भी उसी तरह आप प्रभावित रहता है| जो व्यक्ति सारे भोग कामनाओं का परित्याग करें, और जो स्वत्वात्मकता की भावना एवं झूठ अहंकार से मुक्त रहे, केवल वही शांति प्राप्त कर सकता है|
हे पार्थ, परम सत्य की साक्षात्कार के पश्चात व्यक्ति कभी भ्रमित नहीं होता| यदि कोई मृत्यु के समय ऐसी दशा में स्थित रहे, उसे ब्रह्म-निर्वाण या शुद्ध चेतना का निवास प्राप्त होता है, और उसके सारे कष्ट समाप्त हो जाते हैं|
आपका कोटि-कोटि धन्यवाद, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण ||
Your article helped me a lot, is there any more related content? Thanks!
Your point of view caught my eye and was very interesting. Thanks. I have a question for you.
Your article helped me a lot, is there any more related content? Thanks!