Bhagavad Gita Updesh दैवासुर संपद विभाग योग – ऐसे लोग, जो भ्रष्ट एवं अल्पबुद्धि होते हैं, वे दुनिया के विनाश के लिए द्रोही गतिविधियों में संपन्न और संलग्न होते हैं |
जय श्री कृष्ण, मैं हूं विशाल यादव, आपका दोस्त, और मैं गीता उपदेश के अध्याय 16 के श्लोको का सार तत्व यहां पर लिख रहा हूं, और आशा करता हूं की यह गीता ज्ञान जो प्रभु श्री कृष्ण द्वारा कही गई है, आपको जीवन में नई ऊंचाइयां और सफलताओं को पाने में मार्गदर्शन करेगी| जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण |
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दैवासुर संपद विभाग योग
श्री कृष्ण के वचन -
हे भारत, ये दिव्य प्रकृति से युक्त जन्म लेने वाले लोगों (देव) के विभिन्न गुण हैं – निर्भयता, हृदय की निर्मलता, आध्यात्मिक ज्ञान में तन्मयता, दान, आत्म-नियंत्रण, बलिदान, वेद अध्ययन, तपस्या, निष्कपटता, अहिंसा, सत्यनिष्ठा, क्रोध से मुक्ति, त्याग, शांति, दूसरों में दोष ढूंढने से विमुखता, सभी प्राणियों के लिए करुणा, धनलोलुपता का अभाव, सौम्यता, विनय, स्थिरता, पराक्रम, क्षमा, धैर्य, स्वच्छता, ईर्ष्या और प्रतिष्ठा की इच्छा से मुक्ति|
दंभ, अहंकार, अभिमान, क्रोध, क्रूरता और अज्ञान – ये उनके गुण हैं जो आसुरी प्रकृति में जन्म लेते हैं|
देवी-गुण मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाता है, जबकि आसुरी-गुण कर्मों के बंधन का कारण बनता है | लेकिन तुम निश्चिंत रहो हे पांडव, क्योंकि तुम्हारा जन्म देवी गुण में हुआ है |
हे पार्थ, दो तरह के लोग इस संसार में जन्म लेते हैं – देव और असुर | मैंने तुम्हें देवों के बारे में विस्तृत रूप से बताया है अब मुझसे असुरों का वर्णन सुनो|
जो लोग असुर स्वभाव के होते हैं वे इस बात का भेद नहीं कर पाते की क्या करना चाहिए और क्या नहीं | उनमें कोई शुद्धता, उचित व्यवहार या सच्चाई पाई नहीं जाती |
वे दावा करते हैं कि यह संसार मिथ्या है, निराधार है और बिना किसी दैवत्व के है | उनका मानना है कि स्त्री और पुरुष के बीच का संबंध ही सबका स्रोत है, और यह की काम-वासना के अतिरिक्त जीवन का अन्य कोई उद्देश्य नहीं |
इस दृष्टिकोण के अनुसार, ऐसे लोग, जो भ्रष्ट एवं अल्पबुद्धि होते हैं, वे दुनिया के विनाश के लिए द्रोही गतिविधियों में संपन्न और संलग्न होते हैं |
अपनी अतोषणीय कामवासनाओं से आसक्त एवं दंभ व घमंड में डूबे, ऐसे लोग मोह के कारण कपटपूर्ण वैचारिकी अपनाते हैं, और अशुद्ध कृत्यों की प्रतिज्ञा लेते हैं |
इस विश्वास के साथ की अपनी लालसा और अपनी काम-वासनाओं को पूरा करना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है, वे मृत्यु के समय तक अनगिनत वयग्रताओं से गुजरते हैं | सैकड़ो महत्वाकांक्षाओं से बंधे, काम और क्रोध में लीन, वे अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए किसी भी अनुचित तरीके से धन इकट्ठा करने का करने के प्रयास में लगे रहते हैं |
वे कहते हैं: ” मैंने आज यह हासिल किया है, अब मैं अपनी अन्य इच्छाएं पूरी करूंगा | यह धन मेरा है और भविष्य में यह बढ़ेगा | इस शत्रु का मैंने वध किया है और भविष्य में मैं दूसरों को भी मार दूंगा | मेरा ही राज है! मैं ही भोगी हूं! मैं सिद्ध हूं! मैं शक्तिशाली हूं! मैं सुखी हूं! मैं धनी और कुलीन हूं! क्या मेरे बराबर कोई है? मैं यज्ञ करूंगा, दान करूंगा और भोग करूंगा!” इस प्रकार भी आज्ञा से बहक जाते हैं|
असुरों के दिमाग विभिन्न भ्रामक विचारों से भरे होते हैं और इस तरह वह जाल में फंसे हुए होते हैं | जैसे वे अपनी सांसारिक इच्छाओं को पूरा करने के लिए कार्यरत होते जाते हैं, वैसे ही उनका घोर नरक में पतन होता है |
आत्म-महत्व से भरपूर, जिद्दी और अपने धन के नशे में धुत, वे केवल नाम-मात्र के लिए उचित विधि का पालन किए बिना ही अभिमान से यज्ञों को करते हैं |
पूरी तरह से अहंकार, बाल, अभिमान. काम और क्रोध के वश में होकर, ऐसे लोग मुझसे घृणा करते हैं, हालांकि मैं उनके और दूसरों के भी शरीर में वास करता हूं |
ऐसे ईर्ष्यालु और क्रोध व्यक्ति सदा ही उन दुराचारी और अधर्मियों के बीच निरंतर जन्म लेते हैं, जहां वे जन्म और मृत्यु के चक्र में बार-बार दुख झेलते हैं क्योंकि वे मनुष्य में सबसे अधम हैं |
हे कुंती पुत्र, सदैव असुरों के बीच जन्म लेने वाले ऐसे मूर्ख मुझे कभी प्राप्त नहीं करते | बल्कि वे सबसे घृड़ित अवस्था में गिर जाते हैं |
निम्न लोको (नरक) और आत्मा-विनाश की ओर जाने वाले तीन मार्ग हैं – काम, क्रोध और लालच | इसलिए, इन तीनों को छोड़ देना चाहिए क्योंकि वे आत्म साक्षात्कार के महान विध्वंसक तक हैं |
हे कुंती पुत्र, जो अंधकार के इन तीन मार्गो से मुक्त है, वह अपने सर्वोत्तम हित के अनुकूल ही अपना आचरण करता है | वह क्रमशः परमधाम में पहुंच जाता है |
जो व्यक्ति अपनी भौतिक इच्छाओं को पूरा करने के लिए वेदों के नियमों की उपेक्षा करता है, वह कभी भी सिद्धि, सुख या परमधाम प्राप्त नहीं करता |
वैदिक निषेधाज्ञाएं तुम्हारे विश्वस्त प्रमाण है यह जानने के लिए की क्या किया जाना चाहिए और क्या नहीं | इसलिए, इनके माध्यम से संसार में अपने कर्तव्यों को समझ कर तुम्हें उनके अनुसार ही कार्य करना चाहिए |
ॐ तत्सत- श्रीमद् भागवत गीता उपनिषद में श्री कृष्ण और अर्जुन के संवाद से लिए गए दैवासुर संपद विभाग योग नामक सोलहवेें अध्याय की यहां पर समाप्ति होती है|
आपका कोटि-कोटि धन्यवाद, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण ||
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